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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

विक्रमादित्य का तेग़ा

बहुत ज़माना ग़ुजरा एक रोज़ पेशावर के मौजे माहनगर में प्रकृति की एक आश्चर्यजनक लीला दिखायी पड़ी। अँधेरी रात थी, बस्ती से कुछ दूर बरगद के एक छाँहदार पेड़ के नीचे एक आग की लौ दिखायी पड़ी और एक झलमलाते हुए चिराग़ की तरह नज़र आती रही। गाँव में बहुत जल्द यह ख़बर फैल गयी। वहाँ के रहने वाले यह विचित्र दृश्य देखने के लिए यहाँ-वहाँ इकट्ठा हो गये। औरतें जो खाना पका रही थीं हाथों में गूँधा हुआ आटा लपेटे बाहर निकल आयीं। बूढ़ों ने बच्चों को कंधे पर बिठा लिया और खाँसते हुए आ खड़े हुए। नवेली बहुएँ लाज के मारे बाहर न आ सकीं मगर दरवाजों की दरारों से झाँक-झाँककर अपने बेकरार दिलों को तसकीन देने लगीं। उस गुम्बदनुमा पेड़ के नीचे अँधेरे के उस अथाह समुन्दर में रोशनी का यह धुँधला शोला पाप के बादलों से घिरी हुई आत्मा का सजीव उदाहरण पेश कर रहा था।

टेकसिंह ने ज्ञानियों की तरह सिर हिलाकर कहा—मैं समझ गया, भूतों की सभा हो रही है।

पंडित चेतराम ने विद्वानों के समान विश्वास के साथ कहा—तुम क्या जानों मैं तह पर पहुँच गया। साँप मणि छोड़कर चरने गया है। इसमें जिसे शक हो जाकर देख आये।

मुंशी गुलाबचन्द्र बोले—इस वक़्त जो वहाँ जाकर मणि उठा लाये, उसके राजा होने में शक नहीं। मगर जान जोखिम है।

प्रेमसिंह एक बूढ़ा जाट था। वह इन महात्माओं की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था।

प्रेमसिंह दुनिया में बिलकुल अकेला था। उसकी सारी उम्र लड़ाइयों में खर्च हुई थी। मगर जब जिन्दगी की शाम आयी और वह सुबह की जिन्दगी के टूटे-फूटे झोपड़े में फिर आया तो उसके दिल में एक अजीब ख़्वाहिश पैदा हुई। अफसोस, दुनिया में मेरा कोई नहीं! काश मेरे भी कोई बच्चा होता! जो ख़्वाहिश शाम के वक़्त चिड़ियों को घोंसले में खींच लाती है और जिस ख़्वाहिश से बेकरार होकर जानवर शाम को अपने थानों की तरफ़ चलते हैं, वही ख़्वाहिश प्रेमसिंह के दिल में मौजें मारने लगीं। ऐसा कोई नहीं, जो सुबह के वक़्त दादा कहकर उसके गले से लिपट जाय। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह खाने के वक़्त कौर बना-बनाकर खिलाये। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह रात के वक़्त लोरियाँ सुना-सुनाकर सुलाये। यह आकांक्षाएँ प्रेमसिंह के दिल में कभी न पैदा हुई थीं। मगर सारे दिन का अकेलापन इतना उदास करने वाला नहीं होता जितना शाम का।

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