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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मैज़िनी को क़ब्र में सोये हुए आज तीन दिन गुज़र गये। शाम का वक़्त था, सूरज की पीली किरणें इस ताज़ा क़ब्र पर हसरतभरी आँखों से ताक रही हैं। तभी एक अधेड़ खूबसूरत औरत, सुहाग के जोड़े पहने, लड़खड़ाती हुई आयी। यह मैग्डलीन थी। उसका चेहरा शोक में डूबा हुआ था, बिल्कुल मुर्झाया हुआ, कि जैसे अब इस शरीर में जान बाक़ी नहीं रही। वह इस क़ब्र के सिरहाने बैठ गयी और अपने सीने पर खुँसे हुए फूल उस पर चढ़ाये, फिर घुटनों के बल बैठकर सच्चे दिल से दुआ करती रही। जब खूब अँधेरा हो गया, बर्फ पड़ने लगी तो वह चुपके से उठी और ख़ामोश सर झुकाये क़रीब के एक गाँव में जाकर रात बसर की और भोर की बेला अपने मकान की तरफ़ रवाना हुई।

मैग्डलीन अब अपने घर की मालिक थी। उसकी माँ बहुत ज़माना हुआ, मर चुकी थी। उसने मैज़िनी के नाम से एक आश्रम बनवाया और खुद आश्रम की ईसाई लेडियों के लिबास में वहाँ रहने लगी। मैज़िनी का नाम उसके लिए एक निहायत पुरदर्द और दिलकश गीत से कम न था। हमदर्दों और कद्रदानों के लिए उसका घर उनका अपना घर था। मैज़िनी के ख़त उसकी इंजील और मैज़िनी का नाम उसका ईश्वर था। आस-पास के ग़रीब लड़कों और मुफ़लिस बीवियों के लिए यही बरकत से भरा हुआ नाम जीविका का साधन था। मैग्डलीन तीन बरस तक ज़िन्दा रही और जब मरी तो अपनी आख़िरी वसीयत के मुताबिक उसी आश्रम में दफ़न की गयी उसका प्रेम मामूली प्रेम न था, एक पवित्र और निष्कलंक भाव था और वह हमको उन प्रेम-रस में डूबी हुई गोपियों की याद दिलाता है जो श्रीकृष्ण के प्रेम वृन्दावन की कुंजों और गलियों में मँडलाया करती थीं, जो उससे मिले होने पर भी उससे अलग थीं और जिनके दिलों में प्रेम के सिवा और किसी चीज़ की जगह न थी। मैज़िनी का आश्रम आज तक क़ायम है और ग़रीब और साधु-सन्त अभी तक मैज़िनी का पवित्र नाम लेकर वहाँ हर तरह का सुख पाते हैं।

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