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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


जब पेड़ के नीचे पहुँचा तो मणि की दमक ज्यादा साफ़ नजर आने लगी। मगर साँप का कहीं पता न था। प्रेमसिंह बहुत खुश हुआ, समझा, शायद साँप कहीं चरने गया है। मगर जब मणि को लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो वहाँ साफ़ जमीन के सिवाय और कोई चीज न दिखायी दी। बूढ़े जाट का कलेजा सन से हो गया और बदन के रोंगटे खड़े हो गये। यकायक उसे अपने सामने कोई चीज लटकती हुई दिखाई दी। प्रेमसिंह ने तेग़ा खींच लिया और उसकी तरफ़ लपका मगर देखा कि वह बरगद की जटा थी। अब प्रेमसिंह का डर बिलकुल दूर हो गया। उसने उस जगह को जहाँ से रोशनी की लौ निकल रही थी, अपनी तलवार से खोदना शुरू किया। जब एक बित्ता जमीन खुद गयी तो तलवार किसी सख़्त चीज से टकरायी और लौ भभक उठी। यह एक छोटा-सा तेग़ा था मगर प्रेमसिंह के हाथ में आते ही उसकी लपट जैसी चमक गायब हो गयी।

यह एक छोटा-सा तेग़ा था, मगर बहुत आबदार। उसकी मूठ में अनमोल जवाहरात जड़े हुए थे और मूठ के ऊपर ‘विक्रमादित्य’ खुदा हुआ था। यह विक्रमादित्य का तेग़ा था, उस विक्रमादित्य का जो भारत का सूर्य बनकर चमका, जिसके गुन अब तक घर-घर गाये जाते हैं। इस तेग़े ने भारत के अमर कालिदास की सोहबतें देखी हैं। जिस वक़्त विक्रमादित्य रातों को वेश बदलकर दुख-दर्द की कहानी अपने कानों से सुनने और अत्याचारों की लीला अपनी संवेदनशील आँखों से देखने के लिए निकलते थे, तो यही आबदार तेग़ा उनके बगल की शोभा हुआ करता था। जिस दया और न्याय ने विक्रमादित्य का नाम अब तक जिन्दा रखा है, उसमें यह तेग़ा भी उनका हमदर्द और शरीक था। यह उनके साथ उस राजसिंहासन पर शोभायमान होता था जिस पर राजा भोज को भी बैठना नसीब न हुआ।

इस तेग़े में ग़जब की चमक थी। बहुत जमाने तक जमीन के नीचे दफन रहने पर भी उस पर जंग का नाम न था। अँधेरे घरों में उससे उजाला हो जाता था। रात भर चमकते हुए तारे की तरह जगमगाता रहता। जिस तरह चाँद बादलों के परदे में घिर जाता है मगर उसकी मद्धिम रोशनी छन-छनकर आती है उसी तरह गिलाफ के अन्दर से उस तेग़े की किरनें नजरों के तीर मारा करती थीं।

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