कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
मगर जब कोई व्यक्ति उसे हाथ में ले लेता तो उसकी चमक गायब हो जाती थी। उसका यह गुण देखकर लोग दंग रह जाते थे।
हिन्दुस्तान में इन दिनों शेरे पंजाब की ललकार गूँज रही थी। रणजीत सिंह दानशीलता और वीरता, दया और न्याय में अपने समय के विक्रमादित्य थे। उस घमण्डी काबुल को, जिसने सदियों तक हिन्दोस्तान को सर नहीं उठाने दिया था, खाक में मिलाकर लाहौर जाते थे। महानगर का खुला हुआ दिलकश मैदान और पेड़ों का आकर्षक जमघट देखा तो वहीं पड़ाव डाल दिया। बाजार लग गये। खेमे और शामियाने गाड़ दिये गये। जब रात हुई तो पचीस हजार चूल्हों का काला धुआँ सारे मैदान और बगीचे पर छा गया। और इस धुएँ के आसमान में चूल्हों की आग, कंदीलें और मशालें ऐसी मालूम होती थीं गोया अँधेरी रात में आसमान पर तारे निकल आये हैं।
शाही आरामगाह से गाने-बजाने की पुरशोर और पुरजोश आवाजें आ रही थीं। सिक्ख सरदारों ने सरहदी जगहों पर सैकड़ों अफगानी औरतें गिरफ्तार कर ली थीं, जैसा उन दिनों लड़ाइयों में आम तौर पर हुआ करता था। वही औरतें इस वक़्त सायेदार दरख्तों के नीचे कुदरती फर्श से सजी हुई महफ़िल में अपनी बेसुरी तानें अलाप रही थीं, और महफ़िल के लोग जिन्हें गाने का आनन्द उठाने की इतनी लालसा न थी जितनी हँसने और खुश होने की, ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से कहकहे लगा-लगाकर हँस रहे थे। कहीं-कहीं मनचले सिपाहियों ने स्वांग भरे थे, वह कुछ मशालें और सैकड़ों तमाशाइयों की भीड़ साथ लिये हुए इधर-उधर धूम मचाते फिरते थे। सारी फ़ौज के दिलों में बैठकर विजय की देवी अपनी लीला दिखा रही थी।
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