कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
वृहस्पति का दिन है। रात के दस बज चुके हैं। महाराजा रनजीतसिंह अपने विलास-भवन में शोभायमान हो रहे हैं। एक सात बत्तियोंवाला झाड़ रौशन है। मानों दीपक-सुन्दरी अपनी सहेलियों के साथ शबनम का घूँघट मुँह पर डाले हुए अपने रूप के गर्व में खोयी हुई है। महाराजा साहब के सामने वृन्दा गेरुए रंग की साड़ी पहने बैठी है। उसके हाथ में एक बीन है, उसी पर वह एक लुभावना गीत अलाप रही है।
महाराज बोले—श्यामा मैं तुम्हारा गाना सुनकर बहुत ख़ुश हुआ, ‘तुम्हें क्या इनाम दूँ?
श्यामा ने एक विशेष भाव से सिर झुकाकर कहा—हुजूर के अख़्तियार में सब कुछ है।
रनजीतसिंह—जागीर लोगी?
श्यामा—ऐसी चीज़ दीजिए, जिससे आपका नाम हो जाय।
महाराज ने वृन्दा की तरफ़ ग़ौर से देखा। उसकी सादगी कह रही थी कि वह धन-दौलत को कुछ नहीं समझती। उसकी दृष्टि की पवित्रता और चेहरे की गम्भीरता साफ़ बता रही थी कि वह वेश्या नहीं जो अपनी अदाओं को बेचती है। फिर पूछा—कोहनूर लोगी?
श्यामा—वह हुजूर के ताज में अधिक सुशोभित है।
महाराज ने आश्चर्य में पड़कर कहा—तुम खुद माँगो।
श्यामा—मिलेगा?
रनजीतसिंह—हाँ।
श्यामा—मुझे इन्साफ़ के खून का बदला दिया जाय।
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