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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


प्रेमसिंह—आओ-आओ, अपने बूढ़े बाप की बातों का बुरा न मानो।

वृन्दा—नहीं दादा, मैं अन्दर क़दम नहीं रख सकती।

प्रेमसिंह—क्यों?

वृन्दा—फिर कभी बताऊँगी। मैं तुम्हारे पास वह तेग़ा लेने आयी हूँ।

प्रेमसिंह ने अचरज में आकर पूछा—उसे लेकर क्या करोगी?

वृन्दा—अपनी बेइज्ज़ती का बदला लूँगी।

प्रेमसिंह—किससे?

वृन्दा—रनजीतसिंह से।

प्रेमसिंह जमीन पर बैठ गया और वृन्दा की बातों पर ग़ौर करने लगा, फिर बोला—वृन्दा, तुम्हें मौका क्योंकर मिलेगा?

वृन्दा—कभी-कभी धूल के साथ उड़कर चींटी भी आसमान तक जा पहुँचती है।

प्रेमसिंह—मगर बकरी शेर से क्योंकर लड़ेगी?

वृन्दा—इसी तेग़े की मदद से।

प्रेमसिंह—इस तेग़े ने कभी छिपकर ख़ून नहीं किया।

वृन्दा—दादा, यह विक्रमादित्य का तेग़ा है। इसने हमेशा दुखियारों की मदद की है।

प्रेमसिंह ने तेग़ा लाकर वृन्दा के हाथ में रख दिया। वृन्दा उसे पहलू में छिपाकर जिस तरफ़ से आयी थी उसी तरफ़ चली गयी। सूरज डूब गया था। पश्चिम के क्षितिज में रोशनी का कुछ-कुछ निशान बाक़ी था और भैंसें अपने बछड़ों को देखने के लिए चरागाहों से दौड़ती और चाव-भरी हुई आवाज़ से मिमियाती चली आती थीं और वृन्दा अपने बच्चे को रोता छोड़कर शाम के अँधेरे डरावने जंगल की तरफ़ जा रही थी।

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