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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

आख़िरी मंज़िल

आह? आज तीन साल गुज़र गए, यही मकान है, यही बाग़ है, यही गंगा का किनारा, यही संगमरमर का हौज़। यही मैं हूँ और यही दरोदीवार। मगर अब इन चीजों से दिल पर कोई असर नहीं होता। वह नशा जो गंगा की सुहानी और हवा के दिलकश झोंकों से दिल पर छा जाता था। उस नशे के लिए अब जी तरस-तरस के रह जाता है। अब वह दिल नहीं रहा। वह युवती जो ज़िन्दगी का सहारा थी अब इस दुनिया में नहीं है।

मोहिनी ने बड़ा आकर्षक रूप पाया था। उसके सौंदर्य में एक आश्चर्यजनक बात थी। उसे प्यार करना मुश्किल था, वह पूजने के योग्य थी। उसके चेहरे पर हमेशा एक बड़ी लुभावनी आत्मिकता की दीप्ति रहती थी। उसकी आँखें जिनमें लाज की गंभीरता और पवित्रता का नशा था, प्रेम का स्रोत थीं। उसकी एक-एक चितवन, एक-एक क्रिया; एक-एक बात उसके हृदय की पवित्रता और सच्चाई का असर दिल पर पैदा करती थी। जब वह अपनी शर्मीली आँखों से मेरी ओर ताकती तो उसका आकर्षण और उसकी गर्मी मेरे दिल में एक ज्वारभाटा सा पैदा कर देती थी। उसकी आँखों से आत्मिक भावों की किरनें निकलती थीं मगर उसके होंठ प्रेम की बानी से अपरिचित थे। उसने कभी इशारे से भी उस अथाह प्रेम को व्यक्त नहीं किया जिसकी लहरों में वह खुद तिनके की तरह बही जाती थी। उसके प्रेम की कोई सीमा न थी। वह प्रेम जिसका लक्ष्य मिलन है, प्रेम नहीं वासना है। मोहिनी का प्रेम वह प्रेम था जो मिलने में भी वियोग के म़जे लेता है। मुझे खूब याद है एक बार जब उसी हौज़ के किनारे चाँदनी रात में मेरी प्रेम-भरी बातों से विभोर होकर उसने कहा था—आह! वह आवाज अभी मेरे हृदय पर अंकित है, ‘मिलन प्रेम का आदि है अंत नहीं।’ प्रेम की समस्या पर इससे ज़्यादा शानदार, इससे ज़्यादा ऊँचा ख़्याल कभी मेरी नज़र से नहीं गुज़रा। वह प्रेम जो चितवनों से पैदा होता है और वियोग में भी हरा-भरा रहता है, वह वासना के एक झोंके को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। संभव है कि यह मेरी आत्मस्तुति हो मगर वह प्रेम, जो मेरी कमज़ोरियों के बावजूद मोहिनी को मुझसे था उसका एक क़तरा भी मुझे बेसुध करने के लिए काफ़ी था। मेरा हृदय इतना विशाल ही न था, मुझे आश्चर्य होता था कि मुझमें वह कौन-सा गुण था जिसने मोहिनी को मेरे प्रति प्रेम से विह्वल कर दिया था। सौन्दर्य, आचरण की पवित्रता, मर्दानगी का जौहर यही वह गुण हैं जिन पर मुहब्बत निछावर होती है। मगर मैं इनमें से एक पर भी गर्व नहीं कर सकता था। शायद मेरी कमज़ोरियाँ ही उस प्रेम की तड़प का कारण थीं।

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