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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


लेकिन सुन्दर हँसमुख हेमवती का स्वभाव इसके बिलकुल उलटा था। अपनी दूसरी बहनों की तरह वह भी सुख-सुविधा पर जान देती थी और गो बाबू अक्षयकुमार ऐसे नादान और ऐसे रुखे-सूखे नहीं थे कि उसकी क़द्र करने के क़ाबिल क़मजोरियों की क़द्र न करते (नहीं, वह सिंगार और सजावट की चीज़ों को देखकर कभी-कभी खुश होने की कोशिश भी करते थे) मगर कभी-कभी जब हेमवती उनकी नेक सलाहों की परवाह न करके सीमा से आगे बढ़ जाती थी तो उस दिन बाबू साहब को उसकी ख़ातिर अपनी वकालत की योग्यता का कुछ-न-कुछ हिस्सा ज़रुर ख़र्च करना पड़ता था।

एक रोज़ जब अक्षयकुमार कचहरी से आये तो सुन्दर और हँसमुख हेमवती ने एक रंगीन लिफ़ाफा उनके हाथ में रख दिया। उन्होंने देखा तो अन्दर एक बहुत नफ़ीस गुलाबी रंग का निमंत्रण था। हेमवती से बोले—इन लोगों को एक-न-एक ख़ब्त सूझता ही रहता है। मेरे ख़याल में इस ड्रामैटिक परफ़ारमेंस की कोई ज़रूरत न थी।

हेमवती इन बातों को सुनने की आदी थी, मुस्कराकर बोली—क्यों, इससे बेहतर और कौन खुशी का मौक़ा हो सकता है।

अक्षयकुमार समझ गये कि अब बहस-मुबाहिसे की ज़रूरत आ गई, सम्हल बैठे और बोले—मेरी जान, बी० ए० के इम्तहान में पास होना कोई गैर-मामूली बात नहीं है, हजारों नौजवान हर साल पास होते रहते हैं। अगर मेरा भाई होता तो मैं सिर्फ़ उसकी पीठ ठोंककर कहता कि शाबाश, ख़ूब मेहनत की। मुझे ड्रामा खेलने का ख़याल भी न पैदा होता। डाक्टर साहब तो समझदार आदमी हैं, उन्हें क्या सूझी!

हेमवती—मुझे तो जाना ही पड़ेगा।

अक्षयकुमार—क्यों, क्या वादा कर लिया है?

हेमवती—डाक्टर साहब की बीवी ख़ुद आई थीं।

अक्षयकुमार—तो मेरी जान, तुम भी कभी उनके घर चली जाना, परसों जाने की क्या जरूरत है?

हेमवती—अब बता ही दूँ, मुझे नायिका का पार्ट दिया गया है और मैंने उसे मंजूर कर लिया है।

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