कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
यह कहकर हेमवती ने गर्व से अपने पति की तरफ़ देखा, मगर अक्षयकुमार को इस ख़बर से बहुत ख़ुशी नहीं हुई। इससे पहले दो बार हेमवती शकुन्तला बन चुकी थी। इन दोनों मौकों पर बाबू साहब को काफ़ी ख़र्च करना पड़ा था। उन्हें डर हुआ कि अब की हफ़्ते में फिर घोष कम्पनी दो सौ का बिल पेश करेगी। और इस बात की सख़्त ज़रूरत थी कि अभी से रोक-थाम की जाय। उन्होंने बहुत मुलायमियत से हेमवती का हाथ पकड़ लिया और बहुत मीठे और मुहब्बत में लिपटे हुए लहजे में बोले—प्यारी, यह बला फिर तुमने अपने सर ले ली। अपनी तकलीफ़ और परेशानी का बिलकुल ख़याल नहीं किया। यह भी नहीं सोचा कि तुम्हारी परेशानी तुम्हारे इस प्रेमी को कितना परेशान करती है। मेरी जान, यह जलसे नैतिक दृष्टि से बहुत आपत्तिजनक होते हैं। इन्हीं मौक़ों पर दिलों में ईर्ष्या के बीज बोये जाते हैं। यहीं, पीठ पीछे बुराई करने की आदत पड़ती है और यहीं तानेबाज़ी और नोकझोंक की मश्क होती है। फ़लाँ लेडी हसीन है, इसलिए उसकी दूसरी बहनों का फ़र्ज है कि उससे जलें। मेरी जान, ईश्वर न करे कि कोई डाही बने, मगर डाह करने के योग्य बनना तो अपने अख़्तियार की बात नहीं। मुझे भय है कि तुम्हारा दाहक सौन्दर्य कितने ही दिलों को जलाकर राख कर देगा। प्यारी हेमू, मुझे दुख है कि तुमने मुझसे पूछे बग़ैर यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया। मुझे विश्वास है, अगर तुम्हें मालूम होता कि मैं इसे पसन्द न करुँगा तो तुम हरगिज़ स्वीकार न करतीं।
सुन्दर और हँसमुख हेमवती इस मुहब्बत में लिपटी हुई तक़रीर को बज़ाहिर बहुत गौर से सुनती रही। इसके बाद जान-बूझकर अनजान बनते हुए बोली—मैंने तो यह सोचकर मंजूर कर लिया था कि कपड़े सब पहले ही के रक्खे हुए हैं, ज़्यादा सामान की जरूरत न होगी, सिर्फ़ चन्द घंटों की तकलीफ़ है और एहसान मुफ़्त। डाक्टरों को नाराज करना भी तो अच्छी बात नहीं है। मगर अब न जाऊँगी। मैं अभी उनको अपनी मजबूरी लिखे देती हूँ। सचमुच क्या फ़ायदा, बेकार की उलझन।
यह सुनकर कि कपड़े सब पहले के रक्खे हुए हैं, कुछ ज़्यादा खर्च न होगा, अक्षयकुमार के दिल पर से एक बड़ा बोझ उठ गया। डाक्टरों को नाराज़ करना भी तो अच्छी बात नहीं। यह जुमला भी मानों से ख़ाली न था। बाबू साहब पछताये कि अगर पहले से यह हाल मालूम होता तो काहे को इस तरह रुखा-सूखा उपदेशक बनना पड़ता। गर्दन हिलाकर बोले—नहीं-नहीं मेरी जान, मेरी मंशा यह हरगिज़ नहीं कि तुम जाओ ही मत। जब तुम निमंत्रण स्वीकार कर चुकी हो तो अब उससे मुकरना इन्सानियत से हटी हुई बात मालूम होती है। मेरी सिर्फ़ यह मंशा थी कि जहाँ तक मुमकिन हो, ऐसे जलसों से दूर रहना चाहिये।
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