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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


इस ख़त को अक्षयकुमार ने दोबारा पढ़ा। इसका उनके दिल पर क्या असर हुआ, यह बयान करने की ज़रूरत नहीं। वह ऋषि नहीं थे, हालाँकि ऐसे नाजुक मौक़े पर ऋषियों का फिसल जाना भी असम्भव नहीं। उन्हें एक नशा-सा महसूस होने लगा। ज़रुर इस परी ने मुझे यहाँ बैठे देखा होगा। मैंने आज कई दिन से आईना भी नहीं देखा, जाने चेहरे की क्या कैफ़ियत हो रही है। इस ख़याल से बेचैन होकर वह दौड़े हुए एक हौज़ पर गए और उसके साफ़ पानी में अपनी सूरत देखी, मगर संतोष न हुआ। बहुत तेज़ी से क़दम बढ़ाते हुए मकान की तरफ़ चले और जाते ही आईने पर निगाह दौड़ाई। हजामत साफ़ नहीं है और साफ़ा कम्बख्त ख़ूबसूरती से नहीं बाँधा। मगर तब भी मुझे कोई बदसूरत नहीं कह सकता। यह ज़रुर कोई आला दरजे की पढ़ी-लिखी, ऊँचे विचारों वाली स्त्री है। वर्ना मामूली औरतों की निगाह में तो दौलत और रुप के सिवा और कोई चीज़ जँचती ही नहीं। तो भी मेरा यह फूहड़पन किसी सुरुचि-सम्पन्न स्त्री को अच्छा नहीं मालूम हो सकता। मुझे अब इसका ज़्यादा ख़याल रखना होगा। आज मेरे भाग्य जागे हैं। बहुत मुद्दत के बाद मेरी क़द्र करनेवाला एक सच्चा जौहरी नजर आया है। भारतीय स्त्रियाँ शर्म और हया की पुतली होती हैं। जब तक कि अपने दिल की हलचलों से मजबूर न हो जाये वह ऐसा ख़त लिखने को साहस नहीं कर सकतीं।

इन्हीं ख़यालों में बाबू अक्षयकुमार ने रात काटी। पलक तक नहीं झपकी।

दूसरे दिन सुबह दस बजे तक बाबू अक्षयकुमार ने शहर की सारी फ़ैशनेबुल दुकानों की सैर की। दुकानदार हैरत में थे कि आज बाबू साहब यहाँ कैसे भूल पड़े। कभी भूलकर भी न झाँकते थे, यह कायापलट क्योंकर हुई? ग़रज़, आज उन्होंने बड़ी बेदर्दी से रुपया ख़र्च किया और जब घर चले तो फ़िटन पर बैठने की जगह न थी।

हेमवती ने उनके माथे पर से पसीना साफ़ करके पूछा—आज सबेरे से कहाँ गायब हो गये? अक्षयकुमार ने चेहरे को ज़रा गम्भीर बनाकर ज़वाब दिया—आज जिगर में कुछ दर्द था, डाक्टर चड्ढा के पास चला गया था।

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