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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


हेमवती के सुन्दर हँसते हुए चेहरे पर मुस्कराहट-सी आ गयी, बोली—तुमने मुझसे बिलकुल ज़िक्र नहीं किया? जिगर का दर्द भयानक मर्ज़ है।

अक्षयकुमार—डाक्टर साहब ने कहा है, कोई डरने की बात नहीं है।

हेमवती—इसकी दवा डा० किचलू के यहाँ बहुत अच्छी मिलती है। मालूम नहीं, डाक्टर चड्ढा मर्ज़ की तह तक पहुँचे भी या नहीं।

अक्षयकुमार ने हेमवती की तरफ़ एक बार चुभती हुई निगाहों से देखा और खाना खाने लगे। इसके बाद अपने कमरे में जाकर लेटे। शाम को जब वह पार्क, घंटाघर, आनन्द बाग की सैर करते हुए फ़िटन पर जा रहे थे तो उनके होंठों पर लाली और गालों पर जवानी की गुलाबी झलक मौजूद थी। तो भी प्रकृति के अन्याय पर, जिसने उन्हें रुप की सम्पदा से वंचित रक्खा था, उन्हें आज जितना गुस्सा आया, शायद और कभी न आया हो। आज वह पतली नाक के बदले अपना ख़ूबसूरत गाउन और डिप्लोमा सब कुछ देने के लिए तैयार थे।

डाक्टर किचलू का ख़ूबसूरत लताओं से सजा हुआ बँगला रात के वक़्त दिन का समाँ दिखा रहा था। फाटक के खम्भे, बरामदे की मेहराबें, सरों के पेड़ों की कतारें सब बिजली के बल्बों से जगमगा रही थीं। इन्सान की बिजली की कारीगरी अपना रंगारंग जादू दिखा रही थी। दरवाजे पर शुभागमन का बन्दनवार, पेड़ों पर रंग-बिरंगे पक्षी, लताओं में खिले हुए फूल, यह सब इसी बिजली की रोशनी के जलवे हैं। इसी सुहानी रोशनी में शहर के रईस इठलाते फिर रहे हैं। अभी नाटक शुरु करने में कुछ देर है। मगर उत्कण्ठा लोगों को अधीर करने पर लगी हैं। डाक्टर किचलू दरवाज़े पर खड़े मेहमानों का स्वागत कर रहे हैं। आठ बजे होंगे कि बाबू अक्षयकुमार बड़ी आन-बान के साथ अपनी फ़िटन से उतरे। डाक्टर साहब चौंक पड़े, आज यह गूलर में कैसे फूल लग गए। उन्होंने बड़े उत्साह से आगे बढ़कर बाबू साहब का स्वागत किया और सर से पाँव तक उन्हें गौर से देखा। उन्हें कभी ख़याल भी न हुआ था कि बाबू अक्षयकुमार ऐसे सुन्दर सजीले कपड़े पहने हुए गबरु नौजवान बन सकते हैं। कायाकल्प का स्पष्ट उदाहरण आँखों के सामने खड़ा था।

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