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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


अक्षय बाबू को देखते ही इधर-उधर के लोग आकर उनके चारों ओर जमा हो गए। हर शख़्स हैरत से एक-दूसरे का मुँह ताकता था। होंठ रुमाल की आड़ ढूँढ़ने लगे, आँखें सरगोशियाँ करने लगीं। हर शख़्स ने ग़ैरमामूली तपाक से उनका मिज़ाज़ पूछा। शराबियों की मजलिस और पीने की मनाही करने वाले हज़रतें वाइज की तशरीफ़आवरी का नज़्जारा पेश हो गया।

अक्षय बाबू बहुत झेंप रहे थे। उनकी आँखें ऊपर को न उठती थीं। इसलिए जब मिज़ाजपुर्सियों का तूफ़ान दूर हुआ तो उन्होंने अपनी हरे कपड़ों वाली स्त्री की तलाश में चारों तरफ़ एक निगाह दौड़ायी और दिल में कहा—यह शोहदें हैं, मसखरे, मगर अभी-अभी उनकी आँखें खुली जाती हैं। मैं दिखा दूँगा कि मुझ पर भी सुन्दरियों की दृष्टि पड़ती है। ऐसी सुन्दरियाँ भी हैं जो सच्चे दिल से मेरे मिज़ाज की कैफ़ियत पूछती हैं और जिनसे अपना दर्देदिल कहने में मैं भी रंगीन-बयान हो सकता हूँ। मगर उस हरे कपड़ोंवाली प्रेमिका का कहीं पता न था। निगाहें चारों तरफ़ से घूम-घामकर नाकाम वापस आयीं।

आध घंटे के बाद नाटक शुरु हुआ। बाबू साहब निराश भाव से पैर उठाते हुए थियेटर हाल में गए और कुर्सी पर बैठ गए। बैठ क्या गए, गिर पड़े। पर्दा उठा। शकुन्तला अपनी दोनों सखियों के साथ सिर पर घड़ा रक्खे पौधों को सींचती हुई दिखाई दी। दर्शक बाग़-बाग़ हो गये। तारीफ़ों के नारे बुलन्द हुए। शकुन्तला का जो काल्पनिक चित्र खिंच सकता है, वह आँखों के सामने खड़ा था—वही प्रेमिका का खुलापन, वही आकर्षक गम्भीरता, वही मतवाली चाल, वही शर्मीली आँखें। अक्षय बाबू पहचान गए यह सुन्दर हँसमुख हेमवती थी।

बाबू अक्षयकुमार का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। इसने मुझसे वादा किया था कि मैं नाटक में न जाऊँगी। मैंने घंटों उसे समझाया। अपनी असमर्थता लिखने पर तैयार थी। मगर सिर्फ़-दूसरों को रिझाने और लुभाने के लिए, सिर्फ़ दूसरों के दिलों में अपने रुप और अपनी अदाओं का जादू फूँकने के लिए, सिर्फ़ दूसरी औरतों को जलाने के लिए उसने मेरी नसीहतों का और अपने वादे का, यहाँ तक कि मेरी अप्रसन्नता का भी ज़रा भी ख़याल न किया!

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