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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


उसने इस नाच-रंग का विरोध किया होगा, किया ही चाहिए। उन्हें क्या, जो कुछ बनेगी-बिगड़ेगी उसके ज़िम्मे लगेगी। यह गुस्सेवर हैं ही। झल्ला गये होंगे। उसे सख़्त-सुस्त कहा होगा। बात की उसे कहाँ बर्दाश्त, यही तो उसमें बड़ा ऐब है, रुठकर कहीं चला गया होगा। मगर गया कहाँ? दुर्गा! तुम मेरे लाल की रक्षा करना, मैं उसे तुम्हारे सुपुर्द करती हूँ। अफ़सोस, यह ग़जब हो गया। मेरा राज्य सूना हो गया और इन्हें अपने राग-रंग की सूझी हुई है। यह सोचते-सोचते रानी के शरीर में कँपकँपी आ गई, उठकर गुस्से से काँपती हुई वह बेधड़क नाच-गाने की महफ़िल की तरफ़ चली। क़रीब पहुँची तो सुरीली तानें सुनाई दीं। एक बरछी-सी जिगर में चुभ गयी। आग पर तेल पड़ गया।

रानी को देखते ही गानेवालियों में एक हलचल-सी मच गई। कोई किसी कोने में जा छिपी, कोई गिरती-पड़ती दरवाज़े की तरफ़ भागी। राजा साहब ने रानी की तरफ़ घूरकर देखा। भयानक गुस्से का शोला सामने दहक रहा था। उनकी त्योरियों पर भी बल पड़ गए। ख़ून बरसाती हुई आँखें आपस में मिलीं। मोम ने लोहे का सामना किया।

रानी थर्रायी हुई आवाज़ में बोलीं—मेरा इन्दरमल कहाँ गया? यह कहते-कहते उसकी आवाज़ रुक गई और होंठ काँपकर रह गए।

राजा ने बेरुख़ी से ज़वाब दिया—मैं नहीं जानता।

रानी सिसकियाँ भरकर बोली—आप नहीं जानते कि वह कल तीसरे पहर से ग़ायब है और उसका कहीं पता नहीं? आपकी इन जहरीली नागिनों ने यह विष बोया है। अगर उसका बाल भी बाँका हुआ तो उसके ज़िम्मेदार आप होंगे।

राजा ने तुर्शी से कहा—वह बड़ा घमण्डी और बिनकहा हो गया है, मैं उसका मुँह नहीं देखना चाहता।

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