लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

317 पाठक हैं

प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


रानी कुचले हुए साँप की तरह ऐंठकर बोली—राजा, तुम्हारी ज़बान से यह बातें निकल रही हैं! हाय मेरा लाल, मेरी आँखों की पुतली, मेरे जिगर का टुकड़ा, मेरा सब कुछ यों अलोप हो जाए और इस बेरहम का दिल ज़रा भी न पसीजे! मेरे घर में आग लग जाए और यहाँ इन्द्र का अखाड़ा सजा रहे! मैं ख़ून के आँसू रोऊँ और यहाँ खुशी के राग अलापे जाएँ!

राजा के नथने फड़कने लगे, कड़ककर बोले—रानी भान कुंवर अब जबान बन्द करो। मैं इससे ज़्यादा नहीं सुन सकता। बेहतर होगा कि तुम महल में चली जाओ।

रानी ने बिफरी हुई शेरनी की तरह गर्दन उठाकर कहा—हाँ, मैं खुद जाती हूँ। मैं हुजूर के ऐश में विघ्न नहीं डालना चाहती, मगर आपको इसका भुगतान करना पड़ेगा। अचलगढ़ में या तो भान कुँवर रहेगी या आपकी जहरीली, विषैली परियाँ!

राजा पर इस धमकी का कोई असर न हुआ। गैंडे की ढाल पर कच्चे लोहे का असर क्या हो सकता है! जी में आया कि साफ़-साफ़ कह दें, भान कुंवर चाहे रहे या न रहे यह परियां जरूर रहेंगी लेकिन अपने को रोककर बोले—तुमको अख़्तियार है, जो ठीक समझो वह करो।

रानी कुछ क़दम चलकर फिर लौटी और बोली—त्रिया-हठ रहेगी या राजहठ?

राजा ने निष्कम्प स्वर में उत्तर दिया—इस वक़्त तो राजहठ ही रहेगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book