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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


व्यास– यही सोच-सोचकर तो हमारे रईस अपना सर्वनाश कर रहे हैं। उनकी देखी-देखी धन का नाश, धर्म का नाश, बल का नाश होता चला जाता है, फिर भी हमारी आँखें नहीं खूलतीं।

लाला– मेरे पिता जी एक बार किसी अंग्रेज़ के साथ पहाड़ पर गये। वहाँ से लौटे तो मुझे वसीहत की कि ख़बरदार, कभी पहाड़ पर न जाना। आख़िर कोई बात देखी होगी, जभी तो यह वसीहत की।

वाजिद– हुजूर, ख़ां साहब जाते हैं जाने दीजिए, आपको मैं जाने की सलाह न दूँगा। जरा सोचिए, कोसों की चढ़ाई, फिर रास्ता इतना खतरनाक कि खुदा की पनाह! ज़रा-सी पगडड़ी और दोनों तरफ़ कोसों का खड्ड। नीचे देखा ओर थरथरा कर आदमी गिर पड़ा और जो कहीं पत्थरों में आग लग गयी, तो चलिए वारा-न्यारा हो गया। जल-भुन के कबाब हो गये।

ख़ां– और जो लाखों आदमी पहाड़ पर रहते हैं?

वाजिद– उनकी ओर बात है भाई साहब।

ख़ां– और बात कैसी? क्या वे आदमी नहीं हैं?

वाजिद– लाखों आदमी दिन-भर हल जोतते हैं, फावड़े चलाते हैं,

लकड़ी फाड़ते हैं, आप करेंगे? है आपमें इतनी दम? हुजूर उस चढ़ाई

पर चढ़ सकते हैं?

ख़ां– क्यों नहीं टट्टुओं पर जायँगे।

वाजिद– टट्टुओं पर छःकोस की चढ़ाई! होश की दवा कीजिए।

कुँअर– टट्टुओं पर! भई हमसे न जाया जायगा। कहीं टट्टू भड़के तो कहीं के न रहे।

लाला– गिरे तो हड्डियाँ तक न मिले!

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