कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
व्यास– प्राण तक चूर-चूर हो जाय।
वाजिद– खुदाबंद, एक जरा– सी ऊँचाई पर से आदमी देखता है, तो काँपने लगता है, न कि पहाड़ की चढ़ाई।
कुँअर– वहाँ सड़कों पर इधर-उधर ईंट या पत्थर की मुंडेर नहीं बनी हुई हैं?
वाजिद– खुदावंद, मंजिलों के रास्तें में मुंडेर कैसी!
कुँअर– आदमी का काम तो नहीं है।
लाला– सुना वहाँ घेघा निकल आता है।
कुँअर– अरे भई यह बुरा रोग है। तब मैं वहाँ जाने का नाम भी न
लूँगा।
ख़ां– आप लाला साहब से पूछें कि साहब लोग जो वहाँ रहते हैं, उनको घेघा क्यों नहीं हो जाता?
लाला– वह लोग ब्रांडी पीते हैं। हम और आप उनकी बराबरी कर सकते हैं भला। फिर उनका अक़बाल!
वाजिद– मुझे तो यक़ीन नहीं आता कि ख़ां साहब कभी नैनीताल
गये हों। इस वक़्त डींग मार रहे हैं। क्यों साहब, आप कितने दिन वहाँ रहे?
ख़ां– कोई चार बरस तक रहा था।
वाजिद– आप वहाँ किस मुहल्ले में रहते थे?
ख़ां– (बड़बड़ा कर) जी– मैं।
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