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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


वाजिद– अखिर आप चार बरस कहाँ रहे?

ख़ां– देखिए याद आ जाय तो कहूँ।

वाजिद– जाइए भी। नैनीताल की सूरत तक तो देखी नहीं, गप हाँक दी कि वहाँ चार बरस तक रहे!

ख़ां– अच्छा साहब, आप ही का कहना सही। मैं कभी नैनीताल नहीं गया। बस, अब तो आप खुश हुए।

कुँअर– आख़िर आप क्यों नहीं बताते कि नैनीताल में आप कहाँ ठहरे थे।

वाजिद– कभी गये हों, तब न बतायें।

ख़ां– कह तो दिया कि मैं नहीं गया, चलिए छुट्टी हुई। अब आप फरमाइए कुँअर साहब, आपको चलना है या नहीं? ये लोग जो कहते हैं सब ठीक है। वहाँ घेघा निकल आता है, वहाँ का पानी इतना खराब है कि खाना बिलकुल नहीं हजम होता, वहाँ हर रोज़ दस-पाँच आदमी खड्ड में गिरा करते हैं। अब आप क्या फैसला करते हैं? वहाँ जो मज़े हैं वह यहाँ ख्वाब में भी नहीं मिल सकते। जिन हुक्काम के दरवाज़े पर घंटों खड़े रहने पर भी मुलाकात नहीं होती, उनसे वहाँ चौबीसों घंटों खड़े रहने पर भी मुलाक़ात नहीं होती। उनसे वहाँ चौबीसों घंटों का साथ रहेगा। मिसों के साथ झील में सैर करने का मज़ा अगर मिल सकता है तो वहीं। अजी सैकड़ों अंग्रेजों से दोस्ती हो जायगी। तीन महीने वहाँ रहकर आप नाम हासिल कर सकते हैं जितना यहाँ ज़िन्दगी-भर भी न होगा। बस, और क्या कहूँ।

कुँवर– वहाँ बड़े-बड़े अंग्रेजों से मुलाकात हो जायेगी?

ख़ां– जनाब, दावतों के मारे आपको दम मारने की मोहलत न मिलेगी।

कुँअर– जी तो चाहता है कि एक बार देख ही आयें।

ख़ां– तो बस तैयारी कीजिए।

सभाजन ने जब देखा कि कुँअर साहब नैनीताल जाने के लिए तैयार हो गये तो सब के सब हाँ में हाँ मिलाने लगे।

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