कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
दूसरी शादी
जब मैं अपने चार साल के लड़के रामसरूप को गौर से देखता हूँ तो ऐसा मालूम होता हे कि उसमें वह भोलापन और आकर्षण नहीं रहा जो कि दो साल पहले था। वह मुझे अपने सुर्ख और रंजीदा आँखों से घूरता हुआ नज़र आता है। उसकी इस हालत को देखकर मेरा कलेजा काँप उठता है और मुझे वह वादा याद आता है जो मैंने दो साल हुए उसकी मां के साथ, जब कि वह मृत्यु-शय्या पर थी, किया था। आदमी इतना स्वार्थी और अपनी इन्द्रियों का इतना गुलाम है कि अपना फ़र्ज़ किसी-किसी वक़्त ही महसूस करता है।
उस दिन जबकि डाक्टर नाउम्मीद हो चुके थे, उसने रोते हुए मुझसे पूछा था– क्या तुम दूसरी शादी कर लोगे? ज़रूर कर लेना। फिर चौंककर कहा, मेरे राम का क्या बनेगा? उसका ख्याल रखना, अगर हो सके।
मैंने कहा– हाँ-हाँ, मैं वादा करता हूँ कि मैं कभी दूसरी शादी न करूँगा और रामसरूप, तुम उसकी फ़िक्र न करो, क्या तुम अच्छी न होगी?
उसने मेरी तरफ़ हाथ फेंक दिया, जैसे कहा, लो अलविदा।
दो मिनट बाद दुनिया मेरी आँखों में अँधेरी हो गयी। रामसरूप बे माँ का हो गया। दो-तीन दिन उसको कलेजे से चिमटाये रखा।
आख़िर छुट्टी पूरी होने पर उसको पिता जी के सुपुर्द करके मैं फिर अपनी ड्यूटी पर चला गया।
दो-तीन महीने दिल बहुत उदास रहा। नौकरी की, क्योंकि उसके सिवाय चारा न था। दिल में कई मंसूबे बांधता रहा। दो-तीन साल नौकरी करके रुपया लेकर दुनिया की सैर को निकल जाऊँगा, यह करूँगा, वह करूँगा, अब कहीं दिल नहीं लगता।
घर से ख़त बराबर आ रहे थे कि फलाँ-फलाँ जगह से नाते आ रहे हैं, आदमी बहुत अच्छे हैं, लड़की अकल की तेज़ और ख़ूबसूरत है, फिर ऐसी जगह नहीं मिलेगी। आख़िर करना है ही, कर लो। हर बात में मेरी राय पूछी जाती थी।
लेकिन मैं बराबर इनकार किये जाता था। मैं हैरान था कि इंसान किस तरह दूसरी शादी पर आमादा हो सकता है! जबकि उसकी सुन्दर और पतिप्राणा स्त्री को, जो कि उसके लिए स्वग्र की एक भेंट थी, भगवान ने एक बार छीन लिया।
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