लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

325 पाठक हैं

प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘मैं यह काम न कर सकूँगा।’

‘क्यों?’

‘मुझमें वह सामर्थ्य नहीं है।’

राजा साहब ने व्यंगपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा– शायद आत्मा जागृत हो गयी, क्यो? वही बीमारी, जो कायरों और नामर्दों को हुआ करती है। अच्छी बात है, जाओ।

‘हुजूर, आप मुझसे नाराज न हों, मैं अपने में वह…।’

राजा साहब ने सिंह की भाँति आग्नेय नेत्रों से देखते हुए गरजकर कहा– मत बको, नमक…

फिर कुछ नम्र होकर बोले– तुम्हारे भाग्य में ठोकरें खाना ही लिखा है। मैंने तुम्हें वह अवसर दिया था, जिसे कोई दूसरा आदमी दैवी वरदान समझता, मगर तुमने उसकी क़द्र न की। तुम्हारी तक़दीर तुमसे फिरी हुई है। हमेशा गुलामी करोंगे और धक्के खाओगे। तुम जैसे आदमियों के लिए गेरुए बाने है। और कमण्डल तथा पहाड़ की एक गुफा। इस धर्म और अधर्म की समस्या पर विचार करने के लिए उसी वैराग्य की ज़रूरत है। संसार मर्दो के लिए है।

मैं पछता रहा था कि मैंने पहले ही क्यों न इन्कार कर दिया।

राजा साहब ने एक क्षण के बाद फिर कहा– अब भी मौका है, फिर सोचो।

मैंने उसी निःशक तत्परता के साथ कहा– हुजूर, मैंने ख़ूब सोच लिया है।

राजा साहब होंठ दाँतों से काटकर बोले– बेहतर है, जाओ और आज ही रात को मेरे राज्य की सीमा के बाहर निकल जाओ। शायद कल तुम्हें इसका अवसर न मिले। मैं न मालूम क्या समझकर तुम्हारी जान बख्शी कर रहा हूँ। न जाने कौन मेरे हृदय में बैठा हुआ तुम्हारी रक्षा कर रहा है। मैं। इस वक़्त अपने आप में नहीं हूँ, लेकिन मुझे तुम्हारी शराफत पर भरोसा है। मुझे अब भी विश्वास है कि इस मामले के तुम दीवार के सामने भी ज़बान पर न लाओगे।

मैं चुपके से निकल आया और रातों-रात राज्य के बाहर पहुँच गया मैंने उस चित्र के सिवा और कोई चीज़ अपने साथ न ली।

इधर सूर्य ने पूर्व की सीमा में पर्दापण किया, उधर मैं रियासत की सीमा से निकल करह अंग्रेज़ी इलाके में जा पहुँचा।

– ‘विशाल भारत’, दिसम्बर, १९२९
0 0 0

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book