कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
सौत
जब रजिया के दो-तीन बच्चे होकर मर गये और उम्र ढल चली, तो रामू का प्रेम उससे कुछ कम होने लगा और दूसरे ब्याह की धुन सवार हुई। आये दिन रजिया से झकझक होने लगी। रामू एक-न-एक बहाना खोजकर रजिया पर बिगड़ता और उसे मारता। और अन्त को वह नयी स्त्री ले ही आया। इसका नाम था दासी। चम्पई रंग था, बड़ी-बडी आँखें, जवानी की उम्र। पीली, कुंशागी रजिया भला इस नवयौवना के सामने क्या जाँचती! फिर भी वह जाते हुए स्वामित्व को, जितने दिन हो सके अपने अधिकार में रखना चाहती थी। गिरते हुए छप्पर को थूनियों से सम्हालने की चेष्टा कर रही थी। इस घर को उसने मर-मरकर बनाया है। उसे सहज ही में नहीं छोड़ सकती। वह इतनी बेसमझ नहीं है कि घर छोड़कर चली जाय और दासी राज करे।
एक दिन रजिया ने रामू से कहा– मेरे पास साड़ी नहीं है, जाकर ला दो।
रामू उसके एक दिन पहले दासी के लिए अच्छी-सी चुँदरी लाया था। रजिया की माँग सुनकर बोला– मेरे पास अभी रुपया नहीं है।
रजिया को साड़ी की उतनी चाह न थी जितनी रामू और दसिया के आनन्द में विघ्नडालने की। बोली– रुपये नहीं थे, तो कल अपनी चहेती के लिए चुँदरी क्यों लाये? चुँदरी के बदले उसी दाम में दो साड़ियाँ लाते, तो एक मेरे काम न आ जाती?
रामू ने स्वेच्छा भाव से कहा– मेरी इच्छा, जो चाहूँगा, करूँगा, तू बोलने वाली कौन है? अभी उसके खाने-खेलने के दिन है। तू चाहती हैं, उसे अभी से नोन-तेल की चिन्ता में डाल दूं। यह मुझसे न होगा। तुझे ओढने-पहनने की साध है तो काम कर, भगवान ने क्या हाथ-पैर नहीं दिये। पहले तो घड़ी रात उठकर काम धंधे में लग जाती थी। अब उसकी डाह में पहर दिन तक पड़ी रहती है। तो रुपये क्या आकाश से गिरेंगे? मैं तेरे लिए अपनी जान थोड़े ही दे दूँगा!
रजिया ने कहा– तो क्या मैं उसकी लौंडी हूँ कि वह रानी की तरह पड़ी रहे और मैं घर का सारा काम करती रहूँ? इतने दिनों छाती फाड़कर काम किया, उसका यह फल मिला, तो अब मेरी बला काम करने आती है।
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