कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
‘मैं जैसे रखूँगा, वैसे ही तुझे रहना पड़ेगा।’
‘मेरी इच्छा होगी रहूँगी, नहीं अलग हो जाऊँगी।’
‘जो तेरी इच्छा हो, कर, मेरा गला छोड़।’
‘अच्छी बात है। आज से तेरा गला छोड़ती हूँ। समझ लूँगी विधवा हो गयी।’
रामू दिल में इतना तो समझता था कि यह गृहस्थी रजिया की जोड़ी हुई है, चाहे उसके रूप में उसके लोचन-विलास के लिए आकर्षण न हो। सम्भव था, कुछ देर के बाद वह जाकर रजिया को मना लेता, पर दासी भी कूटनीति में कुशल थी। उसने गर्म लोहे पर चोटें ज़माना शूरू कीं। बोली– आज देवी की किस बात पर बिगड़ रही थी?
रामू ने उदास मन से कहा– तेरी चुँदरी के पीछे रजिया महाभारत मचाये हुए है। अब कहती है, अलग रहूँगी। मैंने कह दिया, तेरी जो इच्छा हो कर।
दसिया ने आँखें मटकाकर कहा– यह सब नखरे है कि आकर हाथ-पाँव जोड़े, मनावन करें, और कुछ नहीं। तुम चुपचाप बैठे रहो। दो-चार दिन में आप ही गरमी उतर जायगी। तुम कुछ बोलना नहीं, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जायगा।
रामू ने गम्भीर भाव से कहा– दासी, तुम जानती हो, वह कितनी घमण्डिन है। वह मुँह से जो– कहती है, उसे करके छोड़ती है।
रजिया को भी रामू से ऐसी कृतघ्नता की आशा न थी। वह जब पहले की-सी सुन्दरी नहीं, इसलिए रामू को अब उससे प्रेम नहीं है। पुरुष चरित्र में यह कोई असाधारण बात न थी, लेकिन रामू उससे अलग रहेगा, इसका उसे विश्वास न आता था। यह घर उसी ने पैसा-पैसा जोड़कर बनवाया। गृहस्थी भी उसी की जोड़ी हुई है। अनाज का लेन-देन उसी ने शुरू किया। इस घर में आकर उसने कौन-कौन से कष्ट नहीं झेले, इसीलिए तो कि पौरुख थक जाने पर एक टुकड़ा चैन से खायगी और पड़ी रहेगी, और आज वह इतनी निर्दयता से दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक दी गयी! रामू ने इतना भी नहीं कहा– तू अलग नहीं रहने पायेगी। मैं या खुद मर जाऊँगा या तुझे मार डालूँगा, पर तुझे अलग न होने दूँगा। तुझसे मेरा ब्याह हुआ है। हँसी-ठट्ठा नहीं है। तो जब रामू को उसकी परवाह नहीं है, तो वह रामू की क्यों परवाह करे। क्या सभी स्त्रियों के पुरुष बैठे होते हैं। सभी के माँ-बाप, बेटे-पोते होते हैं। आज उसके लड़के जीते होते, तो मज़ाल थी कि यह नई स्त्री लाते, और मेरी यह दुर्गति करते? इस निदई को मेरे ऊपर इतनी भी दया न आयी?
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