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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


रजिया जिस नये गाँव में आयी थी, वह रामू के गाँव से मिला ही हुआ था, अतएव यहाँ के लोग उससे परिचित हैं। वह कैसी कुशल गृहिणी है, कैसी मेहनती, कैसी बात की सच्ची, यह यहाँ किसी से छिपा न था। रजिया को मजूरी मिलने में कोई बाधा न हुई। जो एक लेकर दो का काम करे, उसे काम की क्या कमी?

तीन साल तक रजिया ने कैसे काटे, कैसे एक नई गृहस्थी बनाई, कैसे खेती शुरू की, इसका बयान करने बैठें, तो पोथी हो जाय। संचय के जितने मंत्र हैं, जितने साधन हैं, वे रजिया को ख़ूब मालूम थे। फिर अब उसे लाग हो गयी थी और लाग में आदमी की शक्ति का वारापार नहीं रहता। गाँव वाले उसका परिश्रम देखकर दाँतों उँगली दबाते थे। वह रामू को दिखा देना चाहती है– मैं तुमसे अलग होकर भी आराम से रह सकती हूँ। वह अब पराधीन नारी नहीं है। अपनी कमाई खाती है।

रजिया के पास बैलों की एक अच्छी जोड़ी है। रजिया उन्हें केवल खली-भूसी देकर नहीं रह जाती, रोज़ दो-दो रोटियाँ भी खिलाती है। फिर उन्हें घँटों सहलाती। कभी-कभी उनके कँधों पर सिर रखकर रोती है और कहती है, अब बेटे हो तो, पति हो तो तुम्हीं हो। मेरी लाज अब तुम्हारे ही साथ है। दोनों बैल शायद रजिया की भाषा और भाव समझते हैं। वे मनुष्य नहीं, बैल हैं। दोनों सिर नीचा करके रजिया का हाथ चाटकर उसे आश्वासन देते हैं। वे उसे देखते ही कितने प्रेम से उसकी ओर ताकते लगते हैं, कितने हर्ष से कँधा झुलाकर पर जुवा रखवाते हैं और कैसा जी तोड़ काम करते हैं, यह वे लोग समझ सकते हैं, जिन्होंने बैलों की सेवा की है और उनके हृदय को अपनाया है।

रजिया इस गाँव की चौधराइन है। उसकी बुद्धि जो पहिले नित्य आधार खोजती रहती थी और स्वच्छन्द रूप से अपना विकास न कर सकती थी, अब छाया से निकलकर प्रौढ़ और उन्नत हो गयी है।

एक दिन रजिया घर लौटी, तो एक आदमी ने कहा– तुमने नहीं सुना, चौधराइन, रामू तो बहुत बीमार है। सुना दस लंघन हो गये हैं।

रजिया ने उदासीनता से कहा– जूड़ी है क्या?

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