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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


नारी-हृदय की सारी परवशता इस अत्याचार से विद्रोह करने लगी। वही आग जो मोटी लकड़ी को स्पर्श भी नहीं कर सकती, फूल को जलाकर भस्म कर देती है।

दूसरे दिन रजिया एक दूसरे गाँव में चली गयी। उसने अपने साथ कुछ न लिया। जो साड़ी उसकी देह पर थी, वही उसकी सारी सम्पत्ति थी। विधाता ने उसके बालकों को पहले ही छीन लिया था! आज घर भी छीन लिया!

रामू उस समय दासी के साथ बैठा हुआ आमोद-विनोद कर रहा था। रजिया को जाते देखकर शायद वह समझ न सका कि वह चली जा रही है। रजिया ने यही समझा। इस तरह चोरों की भाँति वह जाना भी न चाहती थी। वह दासी को उसके पति को और सारे गाँव को दिखा देना चाहती थी कि वह इस घर से धेले की भी चीज़ नहीं ले जा रही है। गाँव वालों की दृष्टि में रामू का अपमान करना ही उसका लक्ष्य था। उसके चुपचाप चले जाने से तो कुछ भी न होगा। रामू उलटा सबसे कहेगा, रजिया घर की सारी सम्पदा उठा ले गयी।

उसने रामू को पुकारकर कहा– सम्हालो अपना घर। मैं जाती हूँ। तुम्हारे घर की कोई भी चीज़ अपने साथ नहीं ले जाती।

रामू एक क्षण के लिए कर्तव्य-भ्रष्ट हो गया। क्या कहे, उसकी समझ में नहीं आया। उसे आशा न थी कि वह यों जायगी। उसने सोचा था, जब वह घर ढोकर ले जाने लगेगी, तब वह गाँव वालों को दिखाकर उनकी सहानुभूति प्राप्त करेगा। अब क्या करे।

दसिया बोली– जाकर गाँव में ढिंढोरा पीट आओ। यहाँ किसी का डर नहीं है। तुम अपने घर से ले ही क्या आई थीं, जो कुछ लेकर जाओगी।

रजिया ने उसके मुँह न लगकर रामू ही से कहा– सुनते हो, अपनी चहेती की बातें। फिर भी मुँह नहीं खुलता। मैं तो जाती हूँ, लेकिन दस्सो रानी, तुम भी बहुत दिन राज न करोगी। ईश्वर के दरवार में अन्याय नहीं फलता। वह बड़े-बड़े घमण्डियों का घमण्ड चूर कर देते हैं।

दसिया ठट्ठा मारकर हँसी, पर रामू ने सिर झुका लिया। रजिया चली गयी।

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