कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
रजिया ने कलसा और रस्सी उठायी और कुएँ पर पानी खींचने गयी। बैलों को सानी-पानी देने की बेला आ गयी थी, पर उसकी आँखें उस रास्ते की ओर लगी हुई थीं, जो मलसी (रामू का गाँव) को जाता था। कोई उसे बुलाने अवश्य आ रहा होगा। नहीं, बिना बुलाये वह कैसे जा सकती है। लोग कहेंगे, आख़िर दौड़ी आयी न!
मगर रामू तो अचेत पड़ा होगा। दस लंघन थोड़े नहीं होते। उसकी देह में था ही क्या। फिर उसे कौन बुलायेगा? दसिया को क्या गरज पड़ी है। कोई दूसरा घर कर लेगी। जवान है। सौ गाहक निकल आवेंगे। अच्छा वह आ तो रहा है। हाँ, आ रहा है। कुछ घबराया-सा जान पड़ता है। कौन आदमी है, इसे तो कभी मलसी में नहीं देखा, मगर उस वक़्त से मलसी कभी गयी भी तो नहीं। दो-चार नये आदमी आकर बसे ही होंगे।
बटोही चुपचाप कुएँ के पास से निकला। रजिया ने कलसा जगत पर रख दिया और उसके पास जाकर बोली– रामू महतो ने भेजा है तुम्हें? अच्छा तो चलो घर, मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ। नहीं, अभी मुझे कुछ देर है, बैलों को सानी-पानी देना है, दिया-बत्ती करनी है। तुम्हें रुपये दे दूँ, जाकर दसिया को दे देना। कह देना, कोई काम हो तो बुला भेजें।
बटोही रामू को क्या जाने। किसी दूसरे गाँव का रहने वाला था। पहले तो चकराया, फिर समझ गया। चुपके से रजिया के साथ चला गया और रुपये लेकर लम्बा हुआ। चलते-चलते रजिया ने पूछा– अब क्या हाल है उनका?
बटोही ने अटकल से कहा– अब तो कुछ सम्हल रहे हैं।
‘दसिया बहुत रो-धो तो नहीं रही है?’
‘रोती तो नहीं थी।’
‘वह क्यों रोयेगी। मालूम होगा पीछे।’
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