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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


रजिया ने उसे छाती से लगाकर कहा– क्यों रोती है बहन? वह चला गया। मैं तो हूँ। किसी बात की चिन्ता न कर। इसी घर में हम और तुम दोनों उसके नाम पर बैठेंगी। मैं वहाँ भी देखूँगी यहाँ भी देखूँगी। धाप-भर की बात ही क्या? कोई तुमसे गहने-पाते माँगे तो मत देना।

दसिया का जी होता था कि सिर पटक कर मर जाय। इसे उसने कितना जलाया, कितना रुलाया और घर से निकाल कर छोड़ा।

रजिया ने पूछा– जिस-जिस के रुपये हों, सूरत करके मुझे बता देना। मैं झगड़ा नहीं रखना चाहती। बच्चा दुबला क्यों हो रहा है?

दसिया बोली– मेरे दूध होता ही नहीं। गाय जो तुम छोड़ गयी थीं, वह मर गयी। दूध नहीं पाता।

‘राम-राम! बेचारा मुरझा गया। मैं कल ही गाय लाऊँगी। सभी गृहस्थी उठा लाऊँगी। वहाँ क्या रक्खा है।’

लाश धूम से उठी। रजिया उसके साथ गयी। दाहकर्म किया। भोज हुआ। कोई दो सौ रुपये खर्च हो गये। किसी से माँगने न पड़े।

दसिया के जौहर भी इस त्याग की आंच में निकल आये। विलासिनी सेवा की मूर्ति बन गयी।

आज रामू को मरे सात साल हुए हैं। रजिया घर सम्भाले हुए है। दसिया को वह सौत नहीं, बेटी समझती है। पहले उसे पहनाकर तब आप पहनती है। उसे खिलाकर आप खाती है। जोखू पढ़ने जाता है। उसकी सगाई की बातचीत पक्की हो गयी। इस जाँति में बचपन में ही ब्याह हो जाता है। दसिया ने कहा– बहन गहने बनवा कर क्या करोगी। मेरे गहने तो धरे ही हैं।

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