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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


रजिया ने कहा– नहीं री, उसके लिए नये गहने बनवाऊँगी। अभी तो मेरा हाथ चलता है। जब थक जाऊँ, तो जो चाहे करना। तेरे अभी पहनने-ओढ़ने के दिन हैं, तू अपने गहने रहने दे।

नाइन ठकुर सोहाती करके बोली– आज जोखूं के बाप होते, तो कुछ और ही बात होती।

रजिया ने कहा– वे नहीं हैं, तो मैं तो हूँ। वे जितना करते, मैं उसका दूगा करूँगी। जब मैं मर जाऊँ, तब कहना जोखूँ का बाप नहीं है!

ब्याह के दिन दसिया को रोते देखकर रजिया ने कहा– बहू, तुम क्यों रोती हो? अभी तो मैं जीती हूँ। घर तुम्हारा हैं जैसे चाहो रहो। मुझे एक रोटी दे दो, बस। और मुझे क्या करना है। मेरा आदमी मर गया। तुम्हारा तो अभी जीता है।

दसिया ने उसकी गोद में सिर रख दिया और ख़ूब रोई– जीजी, तुम मेरी माता हो। तुम न होतीं, तो मैं किसके द्वार पर खड़ी होती। घर में तो चूहे लोटते थे। उनके राज में मुझे दुख ही दुख उठाने पड़े। सोहाग का सुख तो मुझे तुम्हारे राज में मिला। मैं दुख से नहीं रोती, रोती हूँ भगवान् की दया पर कि कहाँ मैं और कहाँ यह खुसिहाली!

रजिया मुस्करा कर रो दी।

–  ‘विशाल भारत’, दिसंबर, १९३१
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