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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


रमणियां हँसी से पूछतीं– क्यों बुआ, तुम्हें फूफा की कुछ याद आती है– तुमने उनको देखा तो होगा? और तुलिया के झुर्रियों से भरे हुए मुखमण्डल पर यौवन चमक उठता, आँखों में लाली आ जाती। पुलककर कहती– याद क्यों नहीं आती बेटा, उनकी सूरत तो आज भी मेरी आँखें के समाने हैं बड़ी-बड़ी आँखें, लाल-लाल ऊँचा माथा, चौड़ी छाती, गठी हुई देह, ऐसा तो अब यहाँ कोई पट्ठा ही नहीं है। मोतियों के-से दाँत थे बेटा। लाल-लाल कुरता पहने हुए थे। जब ब्याह हो गया तो मैंने उनसे कहा, मेरे लिए बहुत-से गहने बनवाओगे न, नहीं मैं तुम्हारे घर नहीं रहूँगी। लड़कपन था बेटा, सरम-लिहाज़ कुछ थोड़ा ही था। मेरी बात सुनकर वह बड़े ज़ोर से ठट्ठा मारकर हंसे और मुझे अपने कंधे पर बैठाकर बोले– मैं तुझे गहनों से लाद दूँगा, तुलिया, कितने गहने पहनेगी। मैं परदेस कमाने जाता हूँ, वहाँ से रुपये भेजूँगा, तू बहुत-से गहने बनवाना। जब वहाँ से आऊँगा तो अपने साथ भी सन्दूक-भर गहने लाऊँगा। मेरा डोला हुआ था बेटा, माँ-बाप की ऐसी हैसियत कहाँ थी कि उन्हें बारात के साथ अपने घर बुलातें। उन्हीं के घर मेरी उनसे सगाई हुई और एक ही दिन में मुझे वह कुछ ऐसे भाये कि जब वह चलने लगे तो मैं उनके गले लिपट कर रोती थी और कहती थी कि मुझे भी अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारा खाना पकाऊँगी, तुम्हारी खाट बिछाऊँगी, तुम्हारी धोती छाँटूँगी। वहाँ उन्हीं के उमर के दो-तीन लड़के और बैठे हुए थे। उन्हीं के सामने वह मुस्करा कर मेरे कान में बोले– और मेरे साथ सोयेगी नहीं? बस, मैं उनका गला छोड़कर अलग खड़ी हो गयी और उनके ऊपर एक कंकड़ फेंककर बोली– मुझे गाली दोगे तो कहे देती हूँ, हाँ!

और यह जीवन-कथा नित्य के सुमिरन और जाप से जीवन-मन्त्र बन गयी थी। उस समय कोई उसका चेहरा देखता! खिला पड़ता था। घूँघट निकालकर भाव बताकर, मुँह फेरकर हँसती हुई, मानो उसके जीवन में दुख जैसी कोई चीज़ है ही नहीं। वह अपने जीवन की इस पुण्य स्मृति का वर्णन करती, अपने अन्तस्तल के इस प्रकाश को देर्शाती जो सौ बरसों से उसके जीवन-पथ को काँटों और गढ़ों से बचाता आता था। कैसी अनन्त अभिलाषा था, जिसे जीवन-सत्यों ने ज़रा भी धूमिल न कर पाया था।

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