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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


तुलिया की जब सगाई हुई तो वह केवल पाँच साल की थी और उसका पति अठारह साल का बलिष्ठ युवक था। विवाह करके वह पूरब कमाने चला गया। सोचा, अभी इस लड़की के जवान होने में दस-बारह साल की देर है। इतने दिनों में क्यों न कुछ धन कमा लूँ और फिर निश्चिन्त होकर खेती-बारी करूँ। लेकिन तुलिया जवान भी हुई, बूढ़ी भी हो गयी, वह लौटकर घर न आया। पचास साल तक उसके खत हर तीसरे महीने आते रहे। खत के साथ जवाब के लिए एक पता लिखा हुआ लिफ़ाफ़ा भी होता था और तीस रुपये का मनीआर्डर। ख़त में वह बराबर अपनी विवशता, पराधीनता और दुर्भाग्य का रोना रोता था– क्या करँर तूला, मन में तो बड़ी अभिलाषा है कि अपनी मंड़ैया को आबाद कर देता और तुम्हारे साथ सुख से रहता, पर सब कूछ नसीब के हाथ है, अपना कोई बस नहीं। जब भगवान लावेंगे तब आऊँगा। तुम धीरज रखना, मेरे जीते जी तुम्हें कोई कष्ट न होगा। तुम्हारी बाँह पकड़ी है तो मरते दम तक निबाह करूँगा। जब आँखें बन्द हो जायेंगी तब क्या होगा, कौन जाने? प्रायः सभी पत्रों में थोड़े-से-फेर-फार के साथ यही शब्द और यही भाव होते थे। हाँ, जवानी के पत्रों में विरह की जो ज्वाला होती थी, उसकी जगह अब निराशा की राख ही रह गयी थी। लेकिन तुलिया के लिए सभी पत्र एक-से प्यारे थे, मानो उसके हृदय के अंग हों। उसने एक खत भी कभी न फाड़ा था– ऐसे शगुन के पत्र कहीं फाड़े जाते हैं– उनका एक छोटा-सा पोथा जमा हो गया था। उनके काग़ज़ का रंग उड़ गया था, स्याही भी उड़ गयी थी, लेकिन तुलिया के लिए वे अभी उतने ही सजीव, उतने ही सतृष्ण, उतने ही व्याकुल थे। सब के सब उसकी पेटारी में लाल डोरे से बँधे हुए, उसके दीर्घ जीवन से संचित सोहाग की भाँति, रखे हुए थे। इन पत्रों को पाकर तुलिया गद्गद हो जाती। उसके पाँव ज़मीन पर न पड़ते, उन्हें बार-बार पढ़वाती और बार-बार रोती। उस दिन वह अवश्य केशों में तेल डालती, सिन्दूर से मांग भरवाती, रंगीन साड़ी पहनती, अपनी पुरखिनों के चरन छूती और आशीर्वाद लेती। उसका सोहाग जाग उठता था। गाँव की बिरहिनियों के लिए पत्र पत्र नहीं, जो पढ़कर फेंक दिया जाता है, अपने प्यारे परदेसी के प्राण हैं, देह से मूल्यवान। उनमें देह की कठोरता नहीं, कलुषता नहीं, आत्मा की आकुलता और अनुराग है। तुलिया पति के पत्रों ही को शायद पति समझती थी। पति का कोई दूसरा रूप उसने कहाँ देखा था?

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