कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
तुलिया न टोकरी पटक दी, अपने पाँव छुड़ाकर एक पग पीछे हट गयी ओर रोषभरी आँखों से ताकती हुई बोली– अच्छा ठाकुर, अब यहाँ से चले जाव, नहीं तो या तो तुम न रहोगे या मैं न रहूँगी। तुम्हारे आमों में आग लगे, और तुमको क्या कहूँ! मेरा आदमी काले कोसों मेरे नाम पर बैठा हुआ है इसीलिए कि मैं यहाँ उसके साथ कपट करूँ! वह मर्द है, चार पैसे कमाता है, क्या वह दूसरी न रख सकता था? क्या औरतों की संसार में कमी है? लेकिन वह मेरे नाम पर बैठा हुआ है, मर्द होकर बैठा हुआ है। तुमसे कम पट्ठा नहीं है, तुम्हारा जैसा चाहे न हो। पढ़ोगे उसकी चिट्ठियाँ जो मेरे नाम भेजता है? आप चाहे जिस दशा में हो, मैं कौन यहाँ बैठी देखती हूँ, लेकिन मेरे पास बराबर रुपये भेजता है। इसीलिए कि मैं यहाँ दूसरों से विहार करूँ? जब तक वह मुझको अपनी और अपने को मेरा समझता रहेगा, तुलिया उसी की रहेगी, मन से भी, करम से भी। जब उससे मेरा ब्याह हुआ तब मैं पाँच साल की अल्हड़ छोकरी थी। उसने मेरे साथ कौन-सा सुख उठाया? बाँह पकड़ने की लाज ही तो निभा रहा है! जब वह मर्द होकर प्रीत निभाता है तो मैं औरत होकर उसके साथ दगा करूँ!
यह कहकर वह भीतर गयी और पत्रों की पिटारी लाकर ठाकुर के सामने पटक दी। मगर ठाकुर की आँखों से आँसुओं का तार बँधा हुआ था, ओठ बिचके जा रहे थे। ऐसा जान पड़ता था कि भूमि में धँसा जा रहा है।
एक क्षण के बाद उसने हाथ जोड़कर कहा– मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया तुलिया। मैंने तुझे पहचाना न था। अब इसकी यही सजा है कि इसी क्षण मुझे मार डाल। ऐसे पापी का उद्वार का यही एक मार्ग है।
तुलिया को उस पर दया नहीं आयी। वह समझती थी कि यह अभी तक शरारत किये जाता है। झल्लाकर बोली– मरने को जी चाहता है तो मर जाव। क्या संसार में कुए-तालाब नहीं, या तुम्हारे पास तलवार-कटार नहीं है। मैं किसी को क्यों मारूँ?
ठाकुर ने हताश आँखों से देखा।
“तो यही तेरा हुक्म है?”
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