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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘मेरा हुक्म क्यों होने लगा? मरने वाले किसी से हुक्म नहीं माँगते।’

ठाकुर चला गया और दूसरे दिन उसकी लाश नदी में तैरती हुई मिली। लोगों ने समझा तड़के नहाने आया होगा, पाँव फिसल गया होगा। महीनों तक गाँव में इसकी चर्चा रही, पर तुलिया ने ज़बान तक न खोली, उधर का आना-जाना बन्द कर दिया।

बंसीसिंह के मरते ही छोटे भाई ने जायदाद पर कब्जा कर लिया और उसकी स्त्री और बालक को सताने लगा। देवरानी ताने देती, देवर ऐब लगाता। आखिर अनाथ विधवा एक दिन ज़िन्दगी से तंग आकर घर से निकल पड़ी। गाँव में सोता पड़ गया था। तुलिया भोजन करके हाथ में लालटेन लिये गाय को रोटी खिलाने निकली थी। प्रकाश में उसने ठकुराइन को दबे पाँव जाते देखा। सिसकती और अंचल से आँसू पोंछती जाती थी। तीन साल का बालक गोद में था।

तुलिया ने पूछा– इतनी रात गये कहाँ जाती हो ठकुराइन? सुनो, बात क्या है, तुम तो रो रही हो।

ठकुराइन घर से जा तो रही थी, पर उसे खुद न मालूम था कहाँ। तुलिया की ओर एक बार भीत नेत्रों से देखकर बिना कुछ जवाब दिये आगे बढ़ी। जवाब कैसे देती? गले में तो आँसू भरे हुए थे और इस समय न जाने क्यों और उमड़ आये थे।

तुलिया सामने आकर बोली– जब तक तुम बता न दोगी, मैं एक पग भी आगे न जाने दूँगी।

ठकुराइन खड़ी हो गयी और आँसू-भरी आँखों से क्रोध में भरकर बोली– तू क्या करेगी पूछकर? तुझसे मतलब?

‘मुझसे कोई मतलब ही नहीं? क्या मैं तुम्हारे गाँव में नहीं रहती? गाँव वाले एक-दूसरे के दुख-दर्द में साथ न देंगे तो कौन देगा?’

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