कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
ठाकुन ने चौंककर तुलिया की ओर देखा। उसी वक़्त तुलिया का अंचल खिसक गया और नीचे की लाल चोली झलक पड़ी। उसने झट अंचल सम्हाल लिया, पर उतावली में जूड़े में गुंथी हुई फूलों की बेनी बिजली की तरह आँखों में कौंद गयी। गिरधर का मन चंचल हो उठा। आँखों में हल्का-सा नशा पैदा हुआ और चेहरे पर हल्की-सी सुर्खी और हल्की-सी मुस्कराहट। नस-नस में संगीत-सा गूँज उठा।
उसने तुलिया को हज़ारों बार देखा था, प्यासी आँखों, ललचायी आँखों से, मगर तुलिया अपने रूप और सत् के घमण्ड में उसकी तरफ़ कभी आँखें तक न उठाती थी। उसकी मुद्रा और ढंग में कुछ ऐसी रुखाई, कुछ ऐसी निठुरता होती थी कि ठाकुर के सारे हौसले पस्त हो जाते थे, सारा शौक़ ठण्डा पड़ जाता था। आकाश में उड़ने वाले पंछी पर उसके जाल और दाने का क्या असर हो सकता था? मगर आज वह पंछी सामने वाली डाली पर आ बैठा था और ऐसा जान पड़ता था कि भूखा है। फिर वह क्यों न दाना और जाल लेकर दौड़े।
उसने मस्त होकर कहा– मैं पहुँचाये देता हूँ तुलिया, तू क्यों सिर पर उठायेगी।
‘और कोई देख ले तो यही कहे कि ठाकुर को क्या हो गया है?’
‘मुझे कुत्तों के भूँकने की परवा नहीं है।’
‘लेकिन मुझे तो है।’
ठाकुर ने न माना। गट्ठा सिर पर उठा लिया और इस तरह आकाश में पाँव रखता चला मानो तीनों लोक का खजाना लूटे लिये जाता है।
एक महिना गुज़र गया। तुलिया ने ठाकुर पर मोहिनी डाल दी थी और अब उसे मछली की तरह खेला रही थी। कभी बंसी ढीली कर देती, कभी कड़ी। ठाकुर शिकार करने चला था, खुद जाल में फँस गया। अपना ईसान और धर्म और प्रतिष्ठा सब कुछ होम करके वह देवी का वरदान न पा सकता था। तुलिया आज भी उससे उनती ही दूर थी जितनी पहले।
एक दिन वह तुलिया से बोला– इस तरह कब तक जलायेगी तुलिया? चल कहीं भाग चलें।
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