कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
‘कौन-सी कला?’
‘यही मर्दों को उल्लू बनाने की।’
‘मैं नारी हूँ?’
‘लेकिन पुरुषों का चरित्र तो नहीं जानती?’
‘यह तो हम-तुम दोनों माँ के पेट से सीखकर आयी हैं।’
‘कुछ बता तो क्या करेगी?’
‘वही जो तुम करने जा रही हो। तुम परगने के हाकिम पर अपना जादू डालना चाहती हो, मैं तुम्हारे देवर पर ज़ाला फेंकूगी।’
‘बड़ा घाघ है तुलिया।’
‘यही तो देखना है।’
तुलिया ने बाक़ी रात कार्यक्रम और उसका विधान सोचने में काटी। कुशल सेनापति की भाँति उसने धावे और मार-काट की एक योजना-सी मन में बना ली। उसे अपनी विजय का विश्वास था। शत्रु निश्शंक था, इस धावे की उसे जरा भी ख़बर न थी।
बंसीसिंह का छोटा भाई गिरधर कंधे पर छः फीट का मोटा लट्ठ रखे अकड़ता चला आता था कि तुलिया ने पुकारा– ठाकुर, तनिक यह घास का गट्ठा उठाकर मेरे सिर पर रख दो। मुझसे नहीं उठता।
दोपहर हो गया था। मज़दूर खेतों में लौटकर आ चुके थे। बगूले उठने लगे थे। तुलिया एक पेड़ के नीचे घास का गट्ठा रखे खड़ी थी। उसके माथे से पसीने की धार बह रही थी।
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