कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
ठाकुर अपने घर की एक कोठरी, दस-पांच बीघे खेत, गहने-कपड़े तो उसके चरणों पर चढ़ा देने को तैयार था, लेकिन आधी जायदाद उसके नाम लिख देने का साहस उसमें न था। कल को तुलिया उससे किसी बात पर नाराज हो जाय, तो उसे आधी जायदाद से हाथ धोना पड़े। ऐसी औरत का क्या एतबार! उसे गुमान तक न था कि तुलिया उसके प्रेम की इतनी कड़ी परीक्षा लेगी। उसे तुलिया पर क्रोध आया। यह चमार की बिटिया जरा सुन्दर क्या हो गयी है कि समझती है, मैं अप्सरा हूँ। उसी मुहब्बत केवल उसके रूप का मोह थी। वह मुहब्बत, जो अपने को मिटा देती है और मिट जाना ही अपने जीवन की सफलता समझती है, उसमें न थी।
उसने माथे पर बल लाकर कहा– मैं न जानता था, तुझे मेरी जमीन-जायदा से प्रेम है तुलिया, मुझसे नहीं!
तुलिया ने छूटते ही जवाब दिया– तो क्या मैं न जानती थी कि तुम्हें मेरे रूप और जवानी ही से प्रेम है, मुझसे नहीं?
‘तू प्रेम को बाज़ार का सौदा समझती है?’
‘हाँ, समझती हूँ। तुम्हारे लिए प्रेम चार दिन की चाँदनी होगी, मेरे लिए तो अँधेरा पाख हो जायगा। मैं जब अपना सब कुछ तुम्हें दे रही हूँ तो उसके बदले में सब कुछ लेना भी चाहती हूँ। तुम्हें अगर मुझसे प्रेम होता तो तुम आधी क्या पूरी जायदाद मेरे नाम लिख देते। मैं जायदाद क्या सिर पर उठा ले जाऊँगी? लेकिन तुम्हारी नीयत मालूम हो गयी। अच्छा ही हुआ। भगवान न करे कि ऐसा कोई समय आवे, लेकिन दिन किसी के बराबर नहीं जाते, अगर ऐसा कोई समय आया कि तुमको मेरे सामने हाथ पसारना पड़ा तो तुलिया दिखा देगी कि औरत का दिल कितना उदार हो सकता है।’
तुलिया झल्लायी हुई वहाँ से चली गयी, पर निराश न थी, न बेदिल। जो कुछ हुआ वह उसके सोचे हुए विधान का एक अंग था। इसके आगे क्या होने वाला है इसके बारे में भी उसे कोई सन्देह न था।
ठाकुर ने जायदाद तो बचा ली थी, पर बड़े महँगे दामों। उसके दिल का इत्मीनान ग़ायब हो गया था। ज़िन्दगी में जैसे कुछ रह ही न गया हो। जायदाद आँखों के समाने थी, तुलिया दिल के अन्दर। तुलिया जब रोज़ सामने आकर अपनी तिर्छी चितवनों से उसके हृदय में बाण चलाती थी, तब वह ठोस सत्य थी। अब जो तुलिया उसके हृदय में बैठी हुई थी, वह स्वप्न थी जो सत्य से कहीं ज़्यादा मादक है, विदारक है।
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