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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


कभी-कभी तुलिया स्वप्न की एक झलक-सी नज़र आ जाती, और स्वप्न ही की भाँति विलीन भी हो जाती। गिरधर उससे अपने दिल का दर्द कहने का अवसर ढूंढ़ता रहता लेकिन तुलिया उसके साये से भी परहेज करती। गिरधर को अब अनुभव हो रहा था कि उसके जीवन को सूखी बनाने के लिए उसकी जायदाद जितनी ज़रूरी है, उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी तुलिया है। उसे अब अपनी कृपणता पर क्रोध आता। जायदाद क्या तुलिया के नाम रही, क्या उसके नाम। इस जरा-सी बात में क्या रक्खा है। तुलिया तो इसलिए अपने नाम लिखा रही थी कि कहीं मैं उसके साथ बेवफाई कर जाऊँ तो वह अनाथ न हो जाय। जब मैं उसका बिना कौड़ी का गुलाम हूँ तो बेवफाई कैसी? मैं उसके साथ बेवफ़ाई करूँगा, जिसकी एक निगाह के लिए, एक शब्द के लिए तरसता रहता हूँ। कहीं उससे एक बार एकान्त में भेंट हो जाती तो उससे कह देता– तूला, मेरे पास जो कुछ है, वह सब तुम्हारा है। कहो बखशिशनामा लिख दूँ, कहो बयनामा लिख दूं। मुझसे जो अपराध हुआ उसके लिए नादिम हूँ। जायदाद से मनुष्य को जो एक संस्कार-गत प्रेम है, उसी ने मेरे मुँह से वह शब्द निकलवाये। यही रिवाजी लोभ मेरे और तुम्हारे बीच में आकर खड़ा हो गया। पर अब मैंने जाना कि दुनिया में वही चीज़ सबसे कीमती है जिससे जीवन में आनन्द और अनुराग पैदा हो। अगर दरिद्रता और वैराग्य में आनन्द मिले तो वही सबसे प्रिय वस्तु है, जिस पर आदमी जमीन और मिल्कियत सब कुछ होम कर देगा। आज भी लाखों माई के लाल हैं, जो संसार के सुखों पर लात मारकर जंगलों और पहाड़ों की सैर करने में मस्त हैं। और उस वक़्त मैं इतनी छोटी-सी बात न समझा। हाय रे दुर्भाग्य!

एक दिन ठाकुर के पास तुलिया ने पैगाम भेजा– मैं बीमार हूँ, आकर देख जाव, कौन जाने बचूँ कि न बचूँ।

इधर कई दिन से ठाकुर ने तुलिया को न देखा था। कई बार उसके द्वार के चक्कर भी लगाये, पर वह न दीख पड़ी। अब जो यह संदेशा मिला तो वह जैसे पहाड़ से नीचे गिर पड़ा। रात के दस बजे होंगे। पूरी बात भी न सुनी और दौड़ा। छाती धड़क रही थी और सिर उड़ा जाता था, तुलिया बीमार है! क्या होगा भगवान्! तुम मुझे क्यों नहीं बीमार कर देते? मैं तो उसके बदले मरने को भी तैयार हूँ। दोनों ओर के काले-काले वृक्ष मौत के दूतों की तरह दौड़े चले आते थे। रह-रहकर उसके प्राणों से एक ध्वनि निकलती थी, हसरत और दर्द में डूबी हुई– तुलिया बीमार है!

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