कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
गिरघर फूट-फूटकर रो रहा था। हाथ में कटार होती तो इस वक़्त जिगर में मार लेता और उसके सामने तड़पकर मर जाता।
जरा दम लेकर तुलिया ने फिर कहा– मैं बचूंगी नहीं गिरधर, तुमसे एक बिनती करती हूँ, मानोगी?
गिरधर ने छाती ठोककर कहा– मेरी लाश भी तेरे साथ ही निकलेगी तुलिया। अब जीकर क्या करूँगा और जिऊँ भी तो कैसे? तू मेरा प्राण है तुलिया।
उसे ऐसा मालूम हुआ तुलिया मुस्करायी।
‘नहीं-नहीं, ऐसी नादानी मत करना। तुम्हारे बाल-बच्चे हैं, उनका पालन करना। अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम है, तो ऐसा कोई काम मत करना जिससे किसी को इस प्रेम की गन्ध भी मिले। अपनी तुलिया को मरने के पीछे बदनाम मत करना।
गिरधर ने रोकर कहा– जैसी तेरी इच्छा।
‘मेरी तुमसे एक बिनती है।’
‘अब तो जिऊँगा ही इसीलिए कि तेरा हुक्म पूरा करूँ, यही मेरे जीवन का ध्येय होगा।’
‘मेरी यही विनती है कि अपनी भाभी को उसी मान-मार्यादा के साथ रखना जैसे वह बंसीसिंह के सामने रहती थी। उसका आधा उसको दे देना।
‘लेकिन भाभी तो तीन महीने से अपने मैके में है, और कह गयी है कि अब कभी न आऊँगी।’
‘यह तुमने बुरा किया है गिरधर, बहुत बुरा किया है। अब मेरी समझ में आया कि क्यों मुझे बुर-बुरे सपने आ रहे थे। अगर चाहते हो कि मैं अच्छी हो जाऊँ, तो जितनी जल्दी हो सके, लिखा-पढ़ी करके काग़ज़-पत्तर मेरे पास रख दो। तुम्हारी यह बददियानती ही मेरी जान का गाहक हो रही है। अब मुझे मालूम हुआ कि बंसीसिंह क्यों मुझे बार-बार सपना देते थे। मुझे और कोई रोग नहीं है। बंसीसिंह ही मुझे सता रहे हैं। बस, अभी जाओ। देर की तो मुझे जीता न पाओगे। तुम्हारी बेइन्साफी का दंड बंसीसिंह मुझे दे रहे हैं।’
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