कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
उसने मुस्कराकर कहा– जी हाँ, आपसे बहुत-से काम लूँगी। चलिए, अंदर वेटिंग रूम में बैठें। लखनऊ जा रहे होंगे? मैं। भी वहीं चल रही हूँ।
वेटिंग रूम आकर उसने मुझे आराम कुर्सी पर बिठाया और खुद एक कुर्सी पर बैठकर सिगरेट केस मेरी तरफ़ बढ़ाती हुई बोली– आज तो आपकी बौलिंग बड़ी भयानक थी, वर्ना हम लोग पूरी इनिंग से हारते।
मेरा ताज्जुब और बढ़ा। इस सुन्दरी को क्या क्रिकेट से भी शौक है! मुझे उसके सामने आराम कुर्सी पर बैठते झिझक हो रही थी। ऐसी बदतमीजी मैंने कभी न की थी। ध्यान उसी तरफ़ लगा था, तबियत में कुछ घुटन-सी हो रही थी। रंगों में वह तेजी और तबियत में वह गुलाबी नशा न था जो ऐसे मौके पर स्वभावतः मुझ पर छा जाना चाहिए था। मैंने पूछा– क्या आप वहीं तशरीफ रखती थीं।
उसने अपना सिगरेट जलाते हुए कहा– जी हाँ, शुरू से आख़िर तक। मुझे तो सिर्फ़ आपका खेल जँचा। और लोग तो कुछ बेदिल से हो रहे थे और मैं उसके राज समझ रही हूँ। हमारे यहाँ लोगों में सही आदमियों को सही जगह पर रखने का माद्दा ही नहीं है। जैसे इस राजनीतिक पस्ती ने हमारे सभी गुणों को कुचल डाला हो। जिसके पास धन है उसे हर चीज़ का अधिकार है। वह किसी ज्ञान, विज्ञान के, साहित्यिक-सामाजिक जलसे का सभापति हो सकता है, इसकी योग्यता उसमें हो या न हो। नयी इमारतों का उद्घाटन उसके हाथों कराया जाता है, बुनियादें उसके हाथों रखवाई जाती हैं, सांस्कृतिक आंदोलनों का नेतृत्व उसे दिया जाता है, वह कान्वोकेशन के भाषण पढ़ेगा, लड़कों को इनाम बाँटेगा, यह सब हमारी दास-मनोवृत्ति का प्रसाद है। कोई ताज्जुब नहीं कि हम इतने नीच और गिरे हुए हैं। जहाँ हुक्म और अख्तियार का मामला है वहाँ तो ख़ैर मज़बूरी है, हमें लोगों के पैर चूमने ही पड़ते हैं मगर जहाँ हम अपने स्वतंत्र विचार और स्वतंन्त्र आचरण से काम लें सकते हैं वहाँ भी हमारी जी हुजूरी की आदत हमारा गला नहीं छोड़ती। इस टीम का कप्तान आपको होना चाहिए था, तब देखती दुश्मन क्योंकर बाजी ले जाता। महाराजा साहब में इस टीम का कप्तान बनने की इतनी ही योग्यता है जितनी आप में असेम्बली का सभापति बनने की या मुझमें सिनेमा ऐक्टिंग की।
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