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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


२ जनवरी– मैं हैरान हूँ हेलेन को मुझसे इतनी हमदर्दी क्यों है और यह सिर्फ़ दोस्ताना हमदर्दी नहीं है। इसमें मुहब्बत की सच्चाई है। दया में तो इतना आतिथ्य-सत्कार नहीं हुआ करता, और रही मेरे गुणों की स्वीकृति तो मैं अक्ल से इतना ख़ाली नहीं हूँ कि इस धोखे में पडूँ। गुणों की स्वीकृति ज़्यादा से ज़्यादा एक सिगरेट और एक प्याली चाय पा सकती है। यह सेवा-सत्कार तो मैं वहीं पाता हूँ जहाँ किसी मैच में खेलने के लिए मुझे बुलाया जाता है। तो भी वहाँ भी इतने हार्दिक ढंग से मेरा सत्कार नहीं होता, सिर्फ़ रस्मी ख़ातिरदारी बरती जाती है। उसने जैसे मेरी सुविधा और मेरे आराम के लिए अपने को समर्पित कर दिया हो। मैं तो शायद अपनी प्रेमिका के सिवा और किसी के साथ इस हार्दिकता का बर्ताव न कर सकता। याद रहे, मैंने प्रेमिका कहा है पत्नी नहीं कहा। पत्नी की हम खा़तिरदारी नहीं करते, उससे तो खा़तिरदारी करवाना ही हमारा स्वभाव हो गया है और शायद सच्चाई भी यही है। मगर फ़िलहाल तो मैं इन दोनों नेमतों में से एक का भी हाल नहीं जानता। उसके नाश्ते, डिनर, लँच में तो मैं शरीक था ही, हर स्टेशन पर (वह डाक थी और खास-खास स्टेशनों पर ही रुकती थी) मेवे और फल मँगवाती और मुझे आग्रहपूर्वक खिलाती। कहाँ की क्या चीज़ मशहूर है, इसका उसे ख़ूब पता है। मेरे दोस्तों और घरवालों के लिए तरह-तरह के तोहफ़े ख़रीदे मगर हैरत यह है कि मैंने एक बार भी उसे मना न किया। मना क्योंकर करता, मुझसे पूछकर तो लाती नहीं। जब वह एक चीज़ लाकर मुहब्बत के साथ मुझे भेंट करती है तो मैं कैसे इन्कार करूँ! खुदा जाने क्यों मैं मर्द होकर भी उसके सामने औरत की तरह शर्मीला, कम बोलनेवाला हो जाता हूँ कि जैसे मेरे मुँह में ज़बान ही नहीं। दिन की थकान की वजह से रात-भर मुझे बेचैनी रही सर में हल्का-सा दर्द था मगर मैंने इस दर्द को बढ़ाकर कहा। अकेला होता तो शायद इस दर्द की ज़रा भी परवाह न करता मगर आज उसकी मौजूदगी में मुझे उस दर्द को ज़ाहिर करने में मज़ा आ रहा था। वह मेरे सर में तेल की मालिश करने लगी और मैं ख़ामख़ाह निढाल हुआ जाता था। मेरी बेचैनी के साथ उसकी परीशानी बढ़ती जाती थी। मुझसे बार-बार पूछती, अब दर्द कैसा है और मैं अनमने ढंग से कहता-अच्छा हूँ। उसकी नाज़ुक हथेलियों के स्पर्श से मेरे प्राणों में गुदगुदी होती थी। उसका वह आकर्षक चेहरा मेरे सर पर झुका है, उसकी गर्म साँसे मेरे माथे को चूम रही है और मैं गोया जन्नत के मज़े ले रहा हूँ। मेरे दिल में अब उस पर फतेह पाने की ख्वाहिश झकोले ले रही है। मैं चाहता हूँ वह मेरे नाज उठाये। मेरी तरफ़ से कोई ऐसी पहल न होनी चाहिए जिससे वह समझ जाये कि मैं उस पर लट्टू हो गया हूँ। चौबीस घंटे के अन्दर मेरी मनःस्थिति में कैसे यह क्रांति हो जाती है, मैं क्योंकर प्रेम के प्रार्थी से प्रेम का पात्र बन जाता हूँ। वह बदस्तूर उसी तल्लीनता से मेरे सिर पर हाथ रक्खे बैठी हुई है। तब मुझे उस पर रहम आ जाता है और मैं भी उस एहसास से बरी नहीं हूँ मगर इस माशूकी में आज जो लुत्फ़ आया उस पर आशिकी निछावर है। मुहब्बत करना गुलामी है, मुहब्बत किया जाना बादशाहत।

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