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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मैं भला क्यों इस बात से सहमत होने लगा। मैंने जवाब तो दिया और इन विचारों को इतने ही ज़ोरदार शब्दों में खंडन भी किया। मगर मैंने देखा कि इस मामले में वह संतुलित बुद्धि से काम नहीं लेना चाहती या नहीं ले सकती।

स्टेशन पर उतरते ही मुझे यह फ़िक्र सवार हुई कि हेलेन को अपना मेहमान कैसे बनाऊं। अगर होटल में ठहराऊँ तो भगवान् जाने अपने दिल में क्या कहे। अगर अपने घर ले जाऊँ तो शर्म मालूम होती है। वहाँ ऐसी रुचि-सम्पन्न और अमीरों जैसे स्वभाव वाली युवती के लिए सुविधा की क्या सामग्रिया हैं। यह संयोग की बात है कि मैं क्रिकेट अच्छा खेलने लगा और पढ़ना-लिखना, छोड़-छोड़कर उसी का हो रहा और एक स्कूल का मास्टर हूँ मगर घर की हालत बदस्तूर है। वही पुरा, अँधेरा, टूटा-फूटा मकान, तँग गली में, वही पुराने रंग-ढंग, वही पुरा ढच्चर। अम्मा तो शायद हेलेन को घर में कदम ही न रखने दें। और यहाँ तक नौबत ही क्यों आने लगी, हेलेन खुद दरवाज़े ही से भागेगी। काश, आज अपना मकान होता, सजा-संवरा, मैं इस काबिल होता कि हेलेन की मेहमानदारी कर सकता, इससे ज़्यादा खुशनसीबी और क्या हो सकती थी लेकिन बेसरोसामनी का बुरा हो!

मैं यही सोच रहा था कि हेलेन ने कुली से असबाब उठावाया और बाहर आकर एक टैक्सी बुला ली। मेरे लिए इस टैक्सी में बैठ जाने के सिवा दूसरा चारा क्या बाक़ी रह गया था। मुझे यक़ीन है, अगर मैं। उसे अपने घर ले जाता तो उस बेसरोसामनी के बावजूद वह खुश होती। हेलेन रुचि-सम्पन्न है मगर नखरेबाज नहीं है। वह हर तरह की आजमाइश और तजुर्बे के लिए तैयार रहती है। हेलेन शायद आजमाइशों को और नागवार तजुर्बों को बुलाती है। मगर मुझ में न यह कल्पना है न वह साहस।

उसने ज़रा गौर से मेरा चेहरा देखा होता तो उसे मालूम हो जाता कि उस पर कितनी शार्मिन्दगी और कितनी बेचारगी झलक रही थी। मगर शिष्टाचार का निबाह तो ज़रूरी था, मैंने आपत्ति की, मैं तो आपको अपना मेहमान बनाना चाहता था मगर आप उल्टा मुझे होटल लिये जा रही हैं।

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