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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘बिल्कुल नहीं, तुम भगवन्तपुर स्टेशन से एक मील के अन्दर खड़े हो। चलो मैं तुम्हें स्टेशन का रास्ता दिखा दूँ। अभी गाड़ी मिल जायगी। लेकिन रहना चाहो तो मेरे झोंपड़े में लेट जाओ। कल चले जाना।’

अपने ऊपर गुस्सा आया कि सिर पीट लूं। पांच बजे से तेली के बैल की तरह घूम रहा हूँ और अभी भगवन्तपुर से कुल एक मील आया हूँ। रास्ता भूल गया। यह घटना भी याद रहेगी कि चला छः घण्टे और तय किया एक मील। घर पहुँचने की धुन जैसे और भी दहक उठी।

बोला– नहीं, कल तो होली है। मुझे रात को पहुँच जाना चाहिए।

‘मगर रास्ता पहाड़ी है, ऐसा न हो कोई जानवर मिल जाय। अच्छा चलो, मैं तुम्हें पहुँचाये देता हूँ, मगर तुमने बड़ी गलती की, अनजान रास्ते में रात को पैदल चलना कितना खतरनाक है। अच्छा चलो मैं पहुँचाये देता हूँ। ख़ैर, यहीं खड़े रहो, मैं अभी आता हूँ।’

कुत्ता दुम हिलाने लगा और मुझसे दोस्ती करने का इच्छुक जान पड़ा। दुम हिलाता हुआ, सिर झुकाये क्षमा-याचना के रूप में मेरे सामने आकर खड़ा हुआ। मैंने भी बड़ी उदारता से उसका अपराध क्षमा कर दिया और उसके सिर पर हाथ फेरने लगा। क्षण-भर में वह आदमी बन्दूक कंधे पर रखे आ गया और बोला– चलो, मगर अब ऐसी नादानी न करना, ख़ैरियत हुई कि मैं तुम्हें मिल गया। नदी पर पहुँच जाते तो ज़रूर किसी जानवर से मुठभेड़ हो जाती।

मैंने पूछा– आप तो कोई अंग्रेज़ मालूम होते हैं मगर आपकी बोली बिलकुल हमारे जैसी है?

उसने हंसकर कहा– हाँ, मेरा बाप अंग्रेज़ था, फ़ौजी अफ़सर। मेरी उम्र यहीं गुज़री है। मेरी मां उसका खाना पकाती थी। मैं भी फ़ौज में रह चुका हूँ। योरोप की लड़ाई में गया था, अब पेंशन पाता हूँ। लड़ाई में मैंने जो दृश्य अपनी आँखों से देखे और जिन हालात में मुझे ज़िन्दगी बसर करनी पड़ी और मुझे अपनी इन्सानियत का जितना ख़ून करना पड़ा उससे इस पेशे से मुझे नफ़रत हो गयी और मैं पेंशन लेकर यहाँ चला आया। मेरे पापा ने यहीं एक छोटा-सा घर बना लिया था। मैं यहीं रहता हूँ और आस-पास के खेतों की रखवाली करता हूँ। यह गंगा की घाटी है। चारों तरफ़ पहाड़ियां हैं। जंगली जानवर बहुत लगते हैं। सुअर, नीलगाय, हिरन सारी खेती बर्बाद कर देते हैं। मेरा काम है, जानवरों से खेती की हिफ़ाजत करना। किसानों से मुझे हल पीछे एक मन गल्ला मिल जाता है। वह मेरे गुज़र-बसर के लिए काफ़ी होता है। मेरी बुढ़िया माँ अभी जिन्दा है। जिस तरह पापा का खाना पकाती थी, उसी तरह अब मेरा खाना पकाती है। कभी-कभी मेरे पास आया करो, मैं तुम्हें कसरत करना सिखा दूँगा, साल-भर में पहलवान हो जाओगे।

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