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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मैंने पूछा– आप अभी तक कसरत करते हैं?

वह बोला– हाँ, दो घण्टे रोजाना कसरत करता हूँ। मुगदर और लेज़िम का मुझे बहुत शौक है। मेरा पचासवां साल है, मगर एक सांस में पांच मील दौड़ सकता हूँ। कसरत न करूँ तो इस जंगल में रहूँ कैसे। मैंने ख़ूब कुश्तियां लड़ी हैं। अपनी रेजीमेण्ट में ख़ूब मज़बूत आदमी था। मगर अब इस फ़ौजी ज़िन्दगी की हालातों पर गौर करता हूँ तो शर्म और अफ़सोस से मेरा सर झुक जाता है। कितने ही बेगुनाह मेरी रायफल के शिकार हुए मेरा उन्होंने क्या नुकसान किया था? मेरी उनसे कौन-सी अदावत थी? मुझे तो जर्मन और आस्ट्रियन सिपाही भी वैसे ही सच्चे, वैसे ही बहादुर, वैसे ही खुशमिज़ाज, वेसे ही हमदर्द मालूम हुए जैसे फ्रांस या इंग्लैण्ड के। हमारी उनसे ख़ूब दोस्ती हो गयी थी, साथ खेलते थे, साथ बैठते थे, यह ख़याल ही न आता था कि यह लोग हमारे अपने नहीं हैं। मगर फिर भी हम एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे थे। किसलिए? इसलिए कि बड़े-बड़े अंग्रेज़ सौदागरों को ख़तरा था कि कहीं जर्मनी उनका रोज़गार न छीन ले। यह सौदागरों का राज है। हमारी फ़ौजें उन्हीं के इशारों पर नाचनेवाली कठपुतलियां हैं। जान हम ग़रीबों की गयी, जेबें गर्म हुईं मोटे-मोटे सौदागरों की। उस वक़्त हमारी ऐसी खातिर होती थी, ऐसी पीठ ठोंकी जाती थी, गोया हम सल्तनत के दामाद हैं। हमारे ऊपर फूलों की बारिश होती थी, हमें गार्डन पार्टियां दी जाती थीं, हमारी बहादुरी की कहानियां रोजाना अखबारों में तस्वीरों के साथ छपती थीं। नाज़ुकबदन लेडियाँ और शहज़ादियाँ हमारे लिए कपड़े सीती थीं, तरह-तरह के मुरब्बे और अचार बना-बना कर भेजती थीं। लेकिन जब सुलह हो गयी तो उन्हीं जांबाज़ियों को कोई टके को भी न पूछता था। कितनों ही के अंग भंग हो गये थे, कोई लूला हो गया था, कोई लंगड़ा, कोई अंधा। उन्हें एक टुकड़ा रोटी भी देनेवाला कोई न था। मैंने कितनों ही को सड़क पर भीख मांगते देखा। तब से मुझे इस पेशे से नफ़रत हो गयी। मैंने यहाँ आकर यह काम अपने जिम्मे ले लिया और खुश हूँ। सिपहगिरी इसलिए है कि उससे गरीबों की जानमाल की हिफ़ाजत हो, इसलिए नहीं कि करोड़पतियों की बेशुमार दौलत और बढ़े। यहाँ मेरी जान हमेशा खतरे में बनी रहती है। कई बार मरते-मरते बचा हूँ लेकिन इस काम में मर भी जाऊँ तो मुझे अफ़सोस न होगा, क्योंकि मुझे यह तस्कीन होगा कि मेरी ज़िन्दगी ग़रीबों के काम आयी। और यह बेचारे किसान मेरी कितनी खातिर करते हैं कि तुमसे क्या कहूँ। अगर मैं बीमार पड़ जाऊँ और उन्हें मालूम हो जाय कि मैं उनके शरीर के ताजे ख़ून से अच्छा हो जाऊँगा तो बिना झिझके अपना ख़ून दे देंगे। पहले मैं बहुत शराब पीता था। मेरी बिरादरी को तो तुम लोग जानते होगे। हममें बहुत ज़्यादा लोग ऐसे हैं, जिनको खाना मयस्सर हो या न हो मगर शराब ज़रूर चाहिए। मैं भी एक बोतल शराब रोज़ पी जाता था। बाप ने काफ़ी पैसे छोड़े थे। अगर किफ़ायत से रहना जानता तो ज़िन्दगी-भर आराम से पड़ा रहता। मगर शराब ने सत्यानाश कर दिया। उन दिनों मैं बड़े ठाठ से रहता था। कालर-टाई लगाये, छैला बना हुआ, नौजवान छोकरियों से आँखें लड़ाया करता था। घुड़दौड़ में जुआ खेलना, शराब पीना, क्लब में ताश खेलना और औरतों से दिल बहलाना, यही मेरी ज़िन्दगी थी। तीन-चार साल में मैंने पचीस-तीस हज़ार रुपये उड़ा दिये। कौड़ी कफ़न को न रखी। जब पैसे खतम हो गये तो रोज़ी की फिक्र हुई। फौज में भर्ती हो गया। मगर खुदा का शुक्र है कि वहाँ से कुछ सीखकर लौटा यह सच्चाई मुझ पर खुल गयी कि बहादुर का काम जान लेना नहीं, बल्कि जान की हिफ़ाजत करना है।

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