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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


अभी वह अपना भाषण ख़तम न कर पाया था कि उसकी बीवी आ पहुँची और उसने इसी विचार को और भी ज़ोरदार शब्दों में अदा किया– हाँ, हाँ, करती ही रही मगर राँड खेत में घुस गयी और सारा खेत चौपट कर दिया, इसके पेट में भवानी बैठे! यहाँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है। हाकिम होंगे अपने घर के होंगे। बकरी रखना है तो बाँधकर रखो नहीं गला ऐंठ दूँगी!

मैं भीगी बिल्ली बना हुआ खड़ा था। जितनी फटकार आज सहनी पड़ी उतनी ज़िन्दगी में कभी न सही। और जिस धीरज से आज काम लिया अगर उसे दूसरे मौकों पर काम लिया होता तो आज आदमी होता। कोई जवाब ही न सूझता था। बस यही जी चाहता था कि बकरी का गला घोंट दूँ और ख़िदमतगार को डेढ़ सौ हण्टर जमाऊँ। मेरी खामोशी से वह औरत भी शेर होती जाती थी। आज मुझे मालूम हुआ कि किन्हीं-किन्हीं मौकों पर खामोशी नुकसानदेह साबित होती है। ख़ैर, मेरी बीवी ने घर में यह गुल-गपाड़ा सुना तो दरवाज़े पर आ गयी तो हेकड़ी से बोली– तू कानीहौज पहुँचा दे और क्या करेगी, नाहक टर्र-टर्र कर रही है, घण्टे-भर से। जानवर ही है, एक दिन खुल गयी तो क्या उसकी जान लेगी? ख़बरदार जो एक बात भी मुँह से निकाली। क्यों नहीं खेत के चारों तरफ़ झाड़ लगा देती, कॉँटों से रूंध दे। अपनी गलती तो मानती नहीं, ऊपर से लड़ने आयी है। अभी पुलिस में इत्तला कर दें तो बँधे-बँधे फिरो।

बात कहने की इस शासनपूर्ण शैली ने उन दोनों को ठण्डा कर दिया। लेकिन उनके चले जाने के बाद मैंने देवी जी की ख़ूब ख़बर ली-गरीबों का नुक़सान भी करती हो और ऊपर से रोब जमाती हो। इसी का नाम इंसाफ़ है?

देवी जी ने गर्वपूर्वक उत्तर दिया– मेरा एहसान तो न मानोगे कि शैतानों को कितनी आसानी से भगा दिया, लगे उल्टे डाँटने। गँवारों को राह बतलाने का सख्ती के सिवा दूसरा कोई तरीका नहीं। सज्जनता या उदारता उनकी समझ में नहीं आती। उसे यह लोग कमज़ोरी समझते हैं और कमज़ोर को कौन नहीं दबाना चाहता।

ख़िदमतगार से जवाब तलब किया तो उसने साफ़ कह दिया– साहब, बकरी चराना मेरा काम नहीं है।

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