लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

325 पाठक हैं

प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मैं अभी ऊपर ही था कि बकरियों और भेड़ों का एक गोल न जाने किधर से आ निकला और पत्तियों पर पिल पड़ा। मैं ऊपर से चीख रहा हूँ मगर कौन सुनता है। चरवाहे का कहीं पता नहीं। कहीं दुबक रहा होगा कि देख लिया जाऊँगा तो गालियाँ पड़ेंगी। झल्लाकर नीचे उतरने लगा। एक-एक पल में पत्तियाँ गायब होती जाती थी। उतरकर एक-एक की टाँग तोडूँगा। यकायक पाँव फिसला और मैं दस फिट की ऊँचाई से नीचे आ रहा। कमर में ऐसी चोट आयी कि पाँच मिनट तक आँखों तले अँधेरा छा गया। ख़ैरियत हुई कि और ऊपर से नहीं गिरा, नहीं तो यहीं शहीद हो जाता। बारे, मेरे गिरने के धमाके से बकरियाँ भागीं और थोड़ी-सी पत्तियाँ बच रहीं। जब ज़रा होश ठिकाने हुए तो मैंने उन पत्तियों को ज़मा करके एक गट्ठा बनाया और मज़दूरों की तरह उसे कंधे पर रखकर शर्म की तरह छिपाये घर चला। रास्ते में कोई दुर्घटना न हुई। जब मकान कोई चार फ़लाँग रह गया और मैंने क़दम तेज़ किये कि कहीं कोई देख न ले तो वह काछी समाने से आता दिखायी दिया। कुछ न पूछो उस वक़्त मेरी क्या हालत हुई। रास्ते के दोनों तरफ़ खेतों की ऊँची मेड़ें थीं जिनके ऊपर नागफनी के काँटे लगे हुए थे। अगर रास्ते-रास्ते जाता हूँ तो वह जालिम मेरे बगल से होकर निकलेगा और भगवान् जाने क्या सितम ढाये। कहीं मुड़ने का रास्ता नहीं और वह मरदूद जमदूत की तरह चला आता था। मैंने धोती ऊपर सरकायी, चाल बदल ली और सिर झुकाकर इस तरह निकल जाना चाहता था कि कोई मजदूर है। तले की साँस तले थी, ऊपर की ऊपर, जैसे वह काछी कोई खूँखार शेर हो। बार-बार ईश्वर को याद कर रहा था कि हे भगवान्, तू ही आफ़त के मारे हुओं का मददगार है, इस मरदूद की ज़बान बन्द कर दे। एक क्षण के लिए, इसकी आँखों की रोशनी गायब कर दे…आह, वह यंत्रणा का क्षण जब मैं उसके बराबर एक गज़ के फासले से निकला! एक-एक कदम तलवार की धार पर पड़ रहा था शैतानी आवाज़ कानों में आयी– कौन है रे, कहाँ से पत्तियां तोड़े लाता है!

मुझे मालूम हुआ, नीचे से जमीन निकल गयी है और मैं उसके गहरे पेट में जा पहुँचा हूँ। रोएँ बर्छियां बने हुए थे, दिमाग में उबाल-सा आ रहा था, शरीर को लकवा-सा मार गया, जवाब देने का होश न रहा। तेज़ी से दो-तीन क़दम आगे बढ़ गया, मगर वह ऐच्छिक क्रिया न थी, प्राण-रक्षा की सहज क्रिया थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book