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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


कि एक ज़ालिम हाथ गट्ठे पर पड़ा और गट्ठा नीचे गिर पड़ा। फिर मुझे याद नहीं, क्या हुआ। मुझे जब होश आया तो मैं अपने दरवाज़े पर पसीने से तर खड़ा था गोया मिरगी के दौरे के बाद उठा हूँ। इस बीच मेरी आत्मा पर उपचेतना का आधिपत्य था और बकरी की वह घृणित आवाज़, वह कर्कश आवाज़, वह हिम्मत तोड़नेवाली आवाज़, वह दुनिया की सारी मुसीबतों का खुलासा, वह दुनिया की सारी लानतों की रूह कानों में चुभी जा रही थी।

बीवी ने पूछा– आज कहाँ चले गये थे? इस चुड़ैल को ज़रा बाग भी न ले गये, जीना मुहाल किये देती है। घर से निकलकर कहाँ चली जाऊँ!

मैंने इत्मीनान दिलाया– आज चिल्ला लेने दो, कल सबसे पहला यह काम करूँगा कि इसे घर से निकाल बाहर करूँगा, चाहे कसाई को देना पड़े।

‘और लोग न जाने कैसे बकरियाँ पालते हैं।’

‘बकरी पालने के लिए कुत्ते का दिमाग चाहिए।’

सुबह को बिस्तर से उठकर इसी फ़िक्र में बैठा था कि इस काली बला से क्योंकर मुक्ति मिले कि सहसा एक गड़रिया बकरियों का एक गल्ला चराता हुआ आ निकला। मैंने उसे पुकारा और उससे अपनी बकरी को चराने की बात कही। गड़रिया राजी हो गया। यही उसका काम था। मैंने पूछा– क्या लोगे?

‘आठ आने बकरी मिलते हैं हजूर।’

‘मैं एक रुपया दूँगा लेकिन बकरी कभी मेरे सामने न आवे।’

गड़रिया हैरत में रह गया-मरकही है क्या बाबूजी?

‘नही, नहीं, बहुत सीधी है, बकरी क्या मारेगी, लेकिन मैं उसकी सूरत नहीं देखना चाहता।’

‘अभी तो दूध देती है?’

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