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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘योरोप से आकर एक दिन मैं शिकार खेलने लगा और इधर आ गया। देखा, कई किसान अपने खेतों के किनारे उदास खड़े हैं मैंने पूछा क्या बात है? तुम लोग क्यों इस तरह उदास खड़े हो? एक आदमी ने कहा– क्या करें साहब, ज़िन्दगी से तंग हैं। न मौत आती है न पैदावार होती है। सारे जानवर आकर खेत चर जाते हैं। किसके घर से लगान चुकायें, क्या महाजन को दें, क्या अमलों को दें और क्या खुद खायें? कल इन्हीं खेतो को देखकर दिल की कली खिल जाती थी, आज इन्हें देखकर आँखों में आँसू आ जाते हैं जानवरों ने सफ़ाया कर दिया।

‘मालूम नहीं उस वक़्त मेरे दिल पर किस देवता या पैगम्बर का साया था कि मुझे उन पर रहम आ गया। मैंने कहा– आज से मैं तुम्हारे खेतों की रखवाली करूँगा। क्या मज़ाल कि कोई जानवर फटक सके। एक दाना जो जाय तो ज़ुर्माना दूँ। बस, उस दिन से आज तक मेरा यही काम है। आज दस साल हो गये, मैंने कभी नागा नहीं किया। अपना गुज़र भी होता है और एहसान मुफ़्त मिलता है और सबसे बड़ी बात यह है कि इस काम से दिल की खुशी होती है।’

नदी आ गयी। मैंने देखा वही घाट है जहाँ शाम को किश्ती पर बैठा था। उस चांदनी में नदी जड़ाऊ गहनों से लदी हुई जैसे कोई सुनहरा सपना देख रही हो।

मैंने पूछा– आपका नाम क्या है? कभी-कभी आपके दर्शन के लिए आया करूँगा।

उसने लालटेन उठाकर मेरा चेहरा देखा और बोला– मेरा नाम जैक्सन है। बिल जैक्सन। ज़रूर आना। स्टेशन के पास जिससे मेरा नाम पूछोगे, मेरा पता बतला देगा।

यह कहकर वह पीछे की तरफ़ मुड़ा, मगर यकायक लौट पड़ा और बोला–  मगर तुम्हें यहाँ सारी रात बैठना पड़ेगा और तुम्हारी अम्माँ घबरा रही होंगी। तुम मेरे कंधे पर बैठ जाओ तो मैं तुम्हें उस पार पहुँचा दूँ। आजकल पानी बहुत कम है, मैं तो अक्सर तैर आता हूँ।

मैंने एहसान से दबकर कहा– आपने यही क्या कम इनायत की है कि मुझे यहाँ तक पहुँचा दिया, वर्ना शायद घर पहुँचना नसीब न होता। मैं यहाँ बैठा रहूँगा और सुबह को किश्ती से पार उतर जाऊँगा।

‘वाह, और तुम्हारी अम्माँ रोती होंगी कि मेरे लाड़ले पर न जाने क्या गुज़री?’

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