लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

325 पाठक हैं

प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


गर्मी बीत गयी। बरसात के दिन आये, प्रभुदास की दशा दिनों दिन बिगड़ती गई। वह पड़े-पड़े बहुधा इस रोग पर की गई बड़े-बड़े डाक्टरों की व्याख्याएँ पढ़ा करता था। उनके अनुभवों से अपनी अवस्था की तुलना किया करता था। पहले कुछ दिनों तक तो वह अस्थिरचित– सा हो गया था। दो-चार दिन भी दशा संभली रहती तो पुस्तकें देखने लगता और विलायत यात्रा की चर्चा करता। दो-चार दिन भी ज्वर का प्रकोप बढ़ जाता तो जीवन से निराश हो जाता। किन्तु कई मास के पश्चात जब उसे विश्वास हो गया कि इस रोग से मुक्त होना कठिन है तब उसने जीवन की भी चिन्ता छोड़ दी पथ्यापथ्य का विचार न करता, घरवालों की निगाह बचाकर औषधियां जमीन पर गिरा देता मित्रों के साथ बैठकर जी बहलाता। यदि कोई उससे स्वास्थ्य के विषय में कुछ पूछता तो चिढ़कर मुँह मोड़ लेता। उसके भावों में एक शान्तिमय उदासीनता आ गई थी, और बातों में एक दार्शनिक मर्मज्ञता पाई जाती थी। वह लोक-रीति और सामाजिक प्रथाओं पर बड़ी निर्भीकता से आलोचनाएँ किया करता। यद्यपि बाबू चैतन्यदास के मन में रह-रहकर शंका उठा करती थी कि जब परिणाम विदित ही है तब इस प्रकार धन का अपव्यय करने से क्या लाभ तथापि वे कुछ तो पुत्र-प्रेम और कुछ लोक मत के भय से धैर्य के साथ दवा-दर्पन करते जाते थे।

जाड़े का मौसम था। चैतन्यदास पुत्र के सिरहाने बैठे हुए डाक्टर साहब की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देख रहे थे। जब डाक्टर साहब टेम्परेचर लेकर (थर्मामीटर लगाकर) कुर्सी पर बैठे तब चैतन्यदास ने पूछा– अब तो जाड़ा आ गया। आपको कुछ अन्तर मालूम होता है?

डाक्टर– बिलकुल नहीं, बल्कि रोग और भी दुस्साध्य होता जाता है।

चैतन्यदास ने कठोर स्वर में पूछा– तब आप लोग क्यों मुझे इस भ्रम में डाले हुए थे कि जाड़े में अच्छे हो जाएँगे? इस प्रकार दूसरों की सरलता का उपयोग करना अपना मतलब साधने का साधन हो तो हो, इसे सज्जनता कदापि नहीं कह सकते।

डाक्टर ने नम्रता से कहा– ऐसी दशाओं में हम केवल अनुमान कर सकते हैं। और अनुमान सदैव सत्य नहीं होते। आपको जेरबारी अवश्य हुई पर मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरी इच्छा आपको भ्रम में डालने की नहीं थी।

शिवदास बड़े दिन की छुटिटयों में आया हुआ था, इसी समय वह कमरे में आ गया और डाक्टर साहब से बोला– आप पिता जी की कठिनाइयों का स्वयं अनुमान कर सकते हैं। अगर उनकी बात नागवार लगी तो उन्हें क्षमा कीजिएगा।

चैतन्यदास ने छोटे पुत्र की ओर वात्सल्य की दृष्टि से देखकर कहा– तुम्हें यहाँ आने की क्या ज़रूरत थी? मैं तुमसे कितनी बार कह चुका हूँ कि यहाँ न आया करो। लेकिन तुमको सबर ही नहीं होता।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book