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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मगर वह दोनों शैतान गाड़ी को रुकते देख बेतहाशा नीचे कूद पड़े और उस अंधेरे में न जाने कहाँ खो गये। गार्ड ने भी ज़्यादा छानबीन न की और करता भी तो उस अँधेरे में पता लगाना मुश्किल था। दोनों तरफ़ खड्डर थे, शायद किसी नदी के पास थी। वहाँ दो क्या दो सौ आदमी उस वक़्त बड़ी आसानी से छिप सकते थे। दस मिनट तक गाड़ी खड़ी रही, फिर चल पड़ी।

माया ने मुक्ति की सांस लेकर कहा– आप आज न होते तो ईश्वर ही जाने मेरा क्या हाल होता आपको कहीं चोट तो नहीं आयी?

उस आदमी ने छुरे को जेब में रखते हुए कहा– बिलकुल नहीं। मैं ऐसा बेसुध सोया हुआ था कि उन बदमाशों के आने की ख़बर ही न हुई। वर्ना मैंने उन्हें अन्दर पाँव ही न रखने दिया होता। अगले स्टेशन पर रिपोर्ट करूँगा।

माया– जी नहीं, खामखाह की बदनामी और परेशानी होगी। रिपोर्ट करने से कोई फायदा नहीं। ईश्वर ने आज मेरी आबरू रख ली। मेरा कलेजा अभी तक धड़-धड़ कर रहा है। आप कहाँ तक चलेंगे?

‘मुझे शाहजहाँपुर जाना है।’

‘वहीं तक तो मुझे भी जाना है। शुभ नाम क्या है? कम से कम अपने उपकारक के नाम से तो अपरिचित न रहूँ।

‘मुझे तो ईश्वरदास कहते हैं।

‘माया का कलेजा धक् से हो गया। ज़रूर यह वही खूनी है, इसकी शक्ल-सूरत भी वही है जो उसे बतलायी गयी थी उसने डरते-डरते पूछा– आपका मकान किस मुहल्ले में है?

‘…..में रहता हूँ।

माया का दिल बैठ गया। उसने खिड़की से सिर बाहर निकालकर एक लम्बी सांस ली। हाय! खूनी मिला भी तो इस हालत में जब वह उसके एहसान के बोझ से दबी हुई है! क्या उस आदमी को वह खंज़र का निशाना बना सकती है, जिसने बगैर किसी परिचय के सिर्फ़ हमदर्दी के जोश में ऐसे गाढ़े वक़्त में उसकी मदद की? जान पर खेल गया? वह एक अजीब उलझन में पड़ गयी। उसने उसके चेहरे की तरफ़ देखा, शराफत झलक रही थी। ऐसा आदमी ख़ूनकर सकता है, इसमें उसे संदेह था

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