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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


ईश्वरदास ने पूछा– आप लाहौर से आ रही हैं न? शाहजहाँपुर में कहाँ जाइएगा?

‘अभी तो कहीं धर्मशाला में ठहरूंगी, मकान का इन्तजाम करना है।’

ईश्वरदास ने ताज्जुब से पूछा– तो वहाँ आप किसी दोस्त या रिश्तेदार के यहाँ नहीं जा रही हैं?

‘कोई न कोई मिल ही जायगा।’

‘यों आपका असली मकान कहाँ है?’

‘असली मकान पहले लखनऊ था, अब कहीं नहीं है। मैं बेवा हूँ।’

ईश्वर दास ने शाहजहाँपुर में माया के लिए एक अच्छा मकान तय कर दिया। एक नौकर भी रख दिया। दिन में कई बार हाल-चाल पूछने आता। माया कितना ही चाहती थी कि उसके एहसान न ले, उससे घनिष्ठता न पैदा करे, मगर वह इतना नेक, इतना बामुरौवत और शरीफ था कि माया मजबूर हो जाती थी।

एक दिन वह कई गमले और फर्नीचर लेकर आया। कई ख़ूबसूरत तसवीरें भी थीं। माया ने त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा– मुझे साज-सामान की बिलकुल ज़रूरत नहीं, आप नाहक तकलीफ़ करते हैं।

ईश्वरदास ने इस तरह लज्जित होकर कि जैसे उससे कोई भूल हो गयी हो कहा– मेरे घर में यह चीजें बेकार पड़ी थीं, लाकर रख दीं।

‘मैं इन टीम-टाम की चीजों की गुलाम नहीं बनना चाहती।’

ईश्वरदास ने डरते-डरते कहा– अगर आपको नागवार हो तो उठवा ले जाऊँ?

माया ने देखा कि उसकी आँखें भर आयी हैं, मजबूर होकर बोली– अब आप ले आये हैं तो रहने दीजिए। मगर आगे से कोई ऐसी चीज़ न लाइएगा।

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