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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


माया ने यह शब्द इतने रूखेपन से कहे कि ईश्वरदास का मुँह उतर गया। उसने दुबारा कुछ न कहा। चुपके से चला गया। उसके जाने के बाद माया ने सोचा, मैंने उसके साथ कितनी बेमुरौवती की। रेलगाड़ी की उस दुःखद घटना के बाद उसके दिल में बराबर प्रतिशोध और मनुष्यता में लड़ाई छिड़ी हुई थी। अगर ईश्वरदास उस मौके पर स्वर्ग के एक दूत की तरह न आ जाता तो आज उसकी क्या हालत होती, यह ख्याल करके उसके रोएं खड़े हो जाते थे और ईश्वरदास के लिए उसके दिल की गहराइयों से कृतज्ञता के शब्द निकलते। क्या अपने ऊपर इतना बड़ा एहसान करने वाले के ख़ूनसे अपने हाथ रंगेगी? लेकिन उसी के हाथों से उसे यह मनहूस दिन भी तो देखना पड़ा! उसी के कारण तो उसने रेल का वह सफर किया था वर्ना वह अकेले बिना किसी दोस्त या मददगार के सफर ही क्यों करती? उसी के कारण तो आज वह वैधव्य की विपत्तियां झेल रही है और सारी उम्र झेलेगी। इन बातों का ख़याल करके उसकी आँखें लाल हो जातीं, मुँह से एक गर्म आह निकल जाती और जी चाहता इसी वक़्त कटार लेकर चल पड़े और उसका काम तमाम कर दे।

आज माया ने अन्तिम निश्चय कर लिया। उसने ईश्वरदास की दावत की थी। यही उसकी आखिरी दावत होगी। ईश्वरदास ने उस पर एहसान ज़रूर किये हैं लेकिन दुनिया में कोई एहसान, कोई नेकी उस शोक के दाग को मिटा सकती है? रात के नौ बजे ईश्वरदास आया तो माया ने अपनी वाणी में प्रेम का आवेग भरकर कहा– बैठिए, आपके लिए गर्म-गर्म पूड़ियाँ निकालूँ?

ईश्वरदास– क्या अभी तक आप मेरे इन्तज़ार में बैठी हुई हैं? नाहक गर्मी में परेशान हुईं।

माया ने थाली परसकर उसके सामने रखते हुए कहा– मैं खाना पकाना नहीं जानती? अगर कोई चीज़ अच्छी न लगे तो माफ़ कीजिएगा।

ईश्वरदास ने ख़ूब तारीफ़ करके एक-एक चीज़ खायी। ऐसी स्वादिष्ट चीजें उसने अपनी उम्र में कभी न खायी थीं।

‘आप तो कहती थीं मैं खाना पकाना नहीं जानती?’

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