कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
|
6 पाठकों को प्रिय 325 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
एक दिन माया का नौकर न आया। माया ने आठ-नौ बजे तक उसकी राह देखीं। जब अब भी वह न आया तो उसने जूठे बर्तन मांजना शुरू किया। उसे कभी अपने हाथ से चौका– बर्तन करने का संयोग न हुआ था। बार-बार अपनी हालत पर रोना आता था एक दिन वह था कि उसके घर में नौकरों की एक पलटन थी, आज उसे अपने हाथों बर्तन मांजने पड़ रहे हैं। तिलोत्तमा दौड़-दौड़ कर बड़े जोश से काम कर रही थी। उसे कोई फिक्र न थी। अपने हाथों से काम करने का, अपने को उपयोगी साबित करने का ऐसा अच्छा मौका पाकर उसकी खुशी की सीमा न रही। इतने में ईश्वरदास आकर खड़ा हो गया और माया को बर्तन मांजते देखकर बोला– यह आप क्या कर रही हैं? रहने दीजिए, मैं अभी एक आदमी को बुलावाये लाता हूँ। आपने मुझे क्यों न ख़बर दी, राम-राम, उठ आइए वहाँ से।
माया ने लापरवाही से कहा– कोई ज़रूरत नहीं, आप तकलीफ़ न कीजिए। मैं अभी मांजे लेती हूँ।
‘इसकी ज़रूरत भी क्या, मैं एक मिनट में आता हूँ।’
‘नहीं, आप किसी को न लाइए, मैं इतने बर्तन आसानी से धो लूँगी।’
‘अच्छा तो लाइए मैं भी कुछ मदद करूँ।’
यह कहकर उसने डोल उठा लिया और बाहर से पानी लेने दौड़ा। पानी लाकर उसने मंजे हुए बर्तनों को धोना शुरू किया।
माया ने उसके हाथ से बर्तन छीनने की कोशिश करके कहा– आप मुझे क्यों शर्मिन्दा करते है? रहने दीजिए, मैं अभी साफ़ किये डालती हूँ।
‘आप मुझे शर्मिदा करती हैं या मैं आपको शर्मिदा कर रहा हूँ? आप यहाँ मुसाफ़िर हैं, मैं यहाँ का रहने वाला हूँ, मेरा धर्म है कि आपकी सेवा करूँ। आपने एक ज़्यादती तो यह की कि मुझे जरा भी ख़बर न दी, अब दूसरी ज़्यादती यह कर रही हैं। मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।’
ईश्वरदास ने जरा देर में सारे बर्तन साफ़ करके रख दिये। ऐसा मालूम होता था कि वह ऐसे कामों का आदी है। बर्तन धोकर उसने सारे बर्तन पानी से भर दिये और तब माथे से पसीना पोंछता हुआ बोला– बाज़ार से कोई चीज़ लानी हो तो बतला दीजिए, अभी ला दूँ।
माया– जी नहीं, माफ कीजिए, आप अपने घर का रास्ता लीजिए।
ईश्वरदास– तिलोत्तमा, आओ आज तुम्हें सैर करा लायें।
माया– जी नहीं, रहने दीजिए। इस वक़्त सैर करने नहीं जाती।
|