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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


जब आधी रात हो गयी और ईश्वरदास के खर्राटों की आवाजें कानों में आने लगी तो माया कटार लेकर उठी पर उसका सारा शरीर कांप रहा था। भय और संकल्प, आकर्षण और घृणा एक साथ कभी उसे एक कदम आगे बढ़ा देती, कभी पीछे हटा देती। ऐसा मालूम होता था कि जैसे सारा मकान, सारा आसमान चक्कर खा रहा हैं कमरे की हर एक चीज़ घूमती हुई नज़र आ रही थी। मगर एक क्षण में यह बेचैनी दूर हो गयी और दिल पर डर छा गया। वह दबे पाँव ईश्वरदास के कमरे तक आयी, फिर उसके क़दम वहीं जम गये। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। आह, मैं कितनी कमजोर हूँ, जिस आदमी ने मेरा सर्वनाश कर दिया, मेरी हरी-भरी खेती उजाड़ दी, मेरे लहलहाते हुए उपवन को वीरान कर दिया, मुझे हमेशा के लिए आग के जलते हुए कुंडों में डाल दिया, उससे मैं ख़ून का बदला भी नहीं ले सकती! वह मेरी ही बहनें थीं, जो तलवार और बन्दूक लेकर मैंदान में लड़ती थीं, दहकती हुई चिता में हंसते-हंसते बैठ जाती थीं। उसे उस वक़्त ऐसा मालूम हुआ कि मिस्टर व्यास सामने खड़े हैं और उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा कर रहे हैं, कह रहे है, क्या तुम मेरे ख़ूनका बदला न लोगी? मेरी आत्मा प्रतिशोध के लिए तड़प रही है। क्या उसे हमेशा-हमेशा यों ही तड़पाती रहोगी? क्या यही वफ़ा की शर्त थी? इन विचारों ने माया की भावनाओं को भड़का दिया। उसकी आँखें ख़ूनकी तरह लाल हो गयीं, होंठ दांतों के नीचे दब गये और कटार के हत्थे पर मुटठी बंध गयी। एक उन्माद-सा छा गया। उसने कमरे के अन्दर पैर रखा मगर ईश्वरदास की आँखें खुल गयी थीं। कमरे में लालटेन की मद्धिम रोशनी थी। माया की आहट पाकर वह चौंका और सिर उठाकर देखा तो ख़ूनसर्द हो गया– माया प्रलय की मूर्ति बनी हाथ में नंगी कटार लिये उसकी तरफ़ चली आ रही थी!

वह चारपाई से उठकर खड़ा हो गया और घबड़ाकर बोला– क्या है बहन? यह कटार क्यों लिये हुए हो?

माया ने कहा– यह कटार तुम्हारे ख़ूनकी प्यासी है क्योंकि तुमने मेरे पति का ख़ून किया है।

ईश्वरदास का चेहरा पीला पड़ गया। बोला– मैंनें!

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